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________________ 72 • मञ्जुलता शर्मा SAMBODHI तुला पर रखने पर अकिंचनत्व अधिक भारी सिद्ध होता है ।२४ आज समाज में उत्कोच, भ्रष्टाचार और अनेको समस्याओं का मूल कारण मनुष्य की अदम्यलालसा और संग्रह की प्रवृत्ति ही है। पुराण हमें इस प्रवृत्ति से मुक्त होने का मार्ग दिखाते हैं जिससे समाज में यथेष्ट सन्तुलन स्थापित हो सके । ' पुराणों में सत्य२५ अहिंसा शौच क्षमा२८ धृति२९ दया, पवित्रता आदि सद्गुणों को सभी वर्गों के लिये धर्म बताने का उद्देश्य ही यही था कि व्यक्ति इन मूल्यों से अपने जीवन को अनुप्राणित कर सके । आज समाज में शैक्षिक पतन, व्यभिचार, उत्कोच, घृणा, द्वेष आतंकवाद की प्रवृत्ति ने हमारे समक्ष यह अनुत्तरित प्रश्न छोड़ दिया है कि अब हमारा समाज क्या करे ? अत्याधुनिक पीढ़ी जो सूर्य की प्रथम किरण से अनजान है बिस्तर पर बैडटी के संस्कार से परिवर्द्धित उसकी मानसिकता 'शौच' के पवित्र संस्कार की कैसे जान सकती है? इस किंकर्तव्यविमढता की स्थिति में पराण इसका समाधान प्र करते हैं । वे अपने सामान्य धर्म अपरिग्रह, दान, आज्ञापालन, दया, गुरुसेवा आदि के विस्तृतफलक पर एक आदर्श समाज की स्थापना करते है ।३° उनके द्वारा निर्देशित जीवन दर्शन से हमारे नवांकुर. सौ वर्ष के निरोगी जीवन का स्वप्न देख सकते हैं । वास्तव में पुराण अपने प्राचीन मूल्यों के आधार पर हमारी समग्रता को चिह्नित करते हैं । प्राचीन भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता के रूप में वर्णाश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है। समाज में जीवन व्यतीत करनेवाले प्राणी जब अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार नियमों का पालन करते हैं तो इससे समष्टिगत कल्याण होता है । सृष्टिनिर्माण प्रक्रिया में ब्रह्मा ने समस्त वर्णो के लिये उचित स्थान निरूपित किया है । क्रियावान ब्राह्मणों के लिये प्राजापत्य लोक, संग्रामजयी क्षत्रियों के लिये इन्द्रलोक, वैश्यों के लिये देवलोक और शूद्रों के लिये गन्धर्वलोक निश्चित किया है ।३२ जो कार्य वर्णाश्रमधर्म के विरुद्ध है उस पर गमन करनेवाला व्यक्ति नरक में जाता है ।३२ प्रायः समस्त पुराणों में चारों वर्णो की उत्पत्ति के विषय में एक मत है । वे वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर से मानते हैं जिसमें सिर से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति वर्णित है।३४ विभिन्न पौराणिक आख्यानों में आश्रम व्यवस्था को भी समाज का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के रूप में हमारी संस्कृति के मूल्यों को वर्गीकृत करके एक सुगठित रूप में दिशा निर्देशित करने का श्रमसाध्य कार्य पुराण अत्यन्त सरलता से करते हैं । परन्तु वर्णाश्रम व्यवस्था का यह पौराणिक रूप आज विकृत हो रहा है। वर्ण के नाम पर व्यक्ति अनेकों जातियों एवं उपजातियों में विभाजित है।५ ब्रह्मचर्य आश्रम में दी जाने वाली शिक्षा की व्यवहारिकता समाप्त हो रही है । व्यवसायों के परिवर्तन के साथ शिक्षा में भी परिवर्तन अपेक्षित है अत: विद्यार्थियों को शिक्षित के स्थान पर साक्षर व्यवसायी बनाया जा रहा है । आज न तो तपोवन में स्थित वे गुरुकुल हैं और न ही वह एकाग्र अनुशासन । अनुशासनहीन विद्यार्थी अनेक दुर्गुणों में लिप्त होकर अपना ब्रह्मतेज नष्ट कर रहा है । गृहस्थाश्रम का उद्देश्य भी "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" के स्थान पर मात्र पारिवारिक दायित्वपूर्ण रह गया है। वानप्रस्थ और सन्यास के लिये न तो स्थान है और न आयु । शारीरिक रोग, मनुष्य को इतना अक्षम बना देते हैं कि वह गृहस्थाश्रम में ही समस्त आश्रमों की इति 'इति' स्वीकार कर लेता है। पुराणों की शिक्षा और उसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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