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________________ 74 मञ्जुलता शर्मा SAMBODHI उत्पन्न कर रहा है। ऐसी मानसिकतावाले समाज मैं जहाँ काम का अभिप्रायः केवल क्षणिक आनन्द रह गया है इसे पुरुषार्थ के रूप में प्रतिष्ठित करने की अत्यन्त आवश्यकता है। पुराणों में कहा गया है कि लोक-परलोक दोनों के ही भोग असत हैं अतः उनका चिन्तन नहीं करना चाहिये । जैसे अंग में चुभे काँटे को काँट ही निकाल सकता है ऐसे ही विषयासक्ति रूप काम को आत्मानुरक्ति रूपी काम ही हटा सकता है । अर्थात् काम की निवृत्ति भी काम से ही होती है। आज समाज में काम को इसी रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है । सत्कर्मो से हीन मानव फिर भला मोक्ष की कल्पना कैसे कर सकता है ? त्रिवर्ग के प्रति उसकी साधना इतनी निष्प्राण है कि उसे मोक्ष जैसा गूढ ज्ञान केवल पौराणिक विषय ही प्रतीत होता है। अपने दुष्कर्मो में प्रवृत्त हुआ, पुरुषार्थ हीन वर्तमान समाज अकाल मृत्यु का वरण करण रहा है । ऐसे समय में इस विचार को स्थापित करने की आवश्यकता है कि नित्य सुख क्षण भंगुर है । अत: विवेकशील पुरुष को भगवत्प्रप्ति के लिये पुरुषार्थ चतुष्ट्य का आश्रय लेना चाहिये क्योंकि धर्मविहीन अर्थ और काम उसे ऐसे गर्त में ले जायेगे जहाँ से अपनी संस्कृति का दर्शन भी उसके लिये दिवास्वप्न हो जायेगा । फलतः पुराणों की यह चरम शिक्षा है - भगवान में विश्वास करते हुये निष्काम कर्म का सम्पादन करना । पुराण व्यवहारिक दर्शन का उपदेश देते हैं । विचार तथा आचार, चिन्तन एवं व्यवहार इन दोनों का सामञ्जस्य करके जीवन बिताना ही प्राणी का कर्तव्य है अतः भक्ति के साथ ज्ञान तथा कर्म की समरसता उत्पन्न कर अपने जीवन में उतारने से हमारा जीवन नितान्त सुखमय होगा। यही है पुराणों का भुक्ति मुक्ति का आदर्श और इसी में है पौराणिकी शिक्षा का चरम अवसान इसलिए आज पुराणमार्ग ही ले जायेगा मानव को सुखमय प्रकाश की ओर । सत्यमेवोक्तं - अन्यो न दृष्टः सुखदो हि मार्गः पुराणमार्गो हि सदा वरिष्ठः शास्त्र विना सर्वमिदं न भाति सूर्येण हीना इव जीवलोकाः । शिवपुराण: उमासंहिता । ३वां अध्याय पादटीप : १. गरुडपुराण - ११६/२ २. कूर्मपुराण - २/५५ ३. वामनपुराण ७५/११ ४. स्कन्दपुराण ४४/१९, अग्निपुराण १८३/३ ५. नारदपुराण ४/१८ ६. गरुडपुराण १८/९ ७. श्रीमद्भागवतपुराण - द्वितीय खण्ड ८/१९/४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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