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Vol. XXVIII, 2005
पुराणों की प्रासंगिकता
का महनीय कार्य करते हैं --
तपोऽहिंसा च सत्यं च शौचमिन्द्रिय निग्रहः,
दया दानं त्वनृशंस्यं शुश्रूषा यज्ञकर्म च ।' अपने गौरवमय अतीत को धारण करनेवाली आर्यसभ्यता में त्याग, तप दान, यज्ञ, चिन्तन, मनन, वर्णाश्रम, संस्कार एवं पुरुषार्थ जीवन के प्रधान लक्ष्य स्वीकृत किये गये हैं। अपनी परम्परा के निर्वहन में हमने एक विश्वसंस्कृति की स्थापना की है। परन्तु आज की परिस्थितियाँ सर्वथा भिन्न हैं । धर्मगुरु कहा जानेवाला भारतवर्ष स्वयं एक मौन धर्मयुद्ध से पीड़ित है। रंग, जाति, वर्ग, धर्म, एवं भाषा के आधार पर हम देश को ही नहीं अपितु विश्व को बाँट चुके है । धार्मिक प्रमत्तता अपनी चरम विकृति पर हैं । ऐसे विद्वेषपूर्ण वातावरण अपने परम्परागत चरित्र का परित्याग करना मानव की विवशता है अथवा प्रगतिशीलता । यह, ज्वलंत प्रश्न आज भी भारतीय सभ्यता के समक्ष अनुत्तरित है। धर्म का सार अत्यन्त सूक्ष्म है । यह भुक्ति, मुक्ति प्रदान करने वाला और समस्त पापों को नष्ट करनेवाला है। इस धारणा को जन मानस पर उतारकर पुराणों ने धर्म जैसे सर्वाधिक विवादित विषय को आचार संहिता के रूप में प्रस्तुत किया है। पुराणों में धर्म विषयक धारणा को अन्धविश्वास अथवा परम्परात्मक स्वरूप के रूप में ही चित्रित नहीं किया अपितु उसके तार्किकचिन्तन को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में सिद्ध किया गया है स्कन्दपुराण के द्वितीय खण्ड में अहिंसा को धर्म का मूल बताकर उसे तप की श्रेणी में रखा गया है -
धर्ममूलम अहिंसा च मनसा तां च चिन्तयन्
कर्मणा च तथा वाचा तत एतां समाचरेत् ।' इससे यह प्रतीत होता है कि धर्म ही प्रधान है धर्म के बिना व्यक्ति का श्वास लेना लुहार की धोंकनी के समान है -
यस्य धर्मविहीनानि दिनान्यायान्ति च - स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीविति । . परन्तु यह पौराणिक धर्म संकीर्णता की श्रेणी से निकलकर हमारे लिये एक ऐसा व्यापक फलक प्रस्तुत करता है जिसमें विश्व बन्धुत्व का भाव निहित है। आज आतंकवाद की क्रूरता से सम्पूर्ण मानवता आहत है। प्रतिदिन होनेवाले नरसंहार हमारे शाश्वत मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। ऐसे सामाजिक विचलन में पुराण अपने अनेक आख्यानों एवं उपदेशों द्वारा अहिंसा को प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं । गरुड़ पुराण में अहिंसा को यम कहा है जो मोक्ष का साधनभूत है । श्रीमद् भागवतपुराण सत्य से भी ऊपर अहिंसा को रखता है उसके अनसार यदि अहिंसा के प्रतिपादन में किसी की प्राणरक्ष करते हये असत्य का आचरण करना पडे तो वह निन्दनीय नहीं है। अतः पुराणों की उद्घोषणा यही रही है -
___वरं प्राणास्त्याज्यं न बत परहिंसा त्वभिमता । यद्यपि यज्ञ में पशुबलि के विषय में सर्वाधिक विवाद रहा है। परन्तु पद्मपुराण का यह कथन
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