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________________ पुराणों की प्रासंगिकता मञ्जुलता शर्मा आज सम्पूर्ण विश्व एक संक्रमणकाल से गुजर रहा है। हमारी प्राचीन संस्थायें हमारे क्रमागत विश्वास, जीवन के प्रति हमारी दृष्टि, हमारे सामाजिक मूल्य, हमारी अर्थनीति, राजनीति एवं विचार विनिमय की पद्धति सब परिवर्तित हो रहे हैं। एक युग की समाप्ति पर नवयुग का उदय होना स्वाभाविक हैं। ऐसे परिवर्तनशील समय में मनुष्य भय, संशय, अनिश्चितता और सुरक्षा के अभाव में यथार्थ से पलायन कर रहा है। स्वप्नों के इन्द्रधनुषी संसार में विचरण करता हुआ वह सत्य के धरातल का स्पर्श करना भी नहीं चाहता। ऐसे विद्वेषपूर्ण वातावरण में मूल्यों पर आधारित शिक्षा ही एक सार्वसंस्कृति उत्पन्न करने का माध्यम बन सकती है । पुराण इन मूल्यों का प्राणतत्त्व हैं। इनमें भारत की सत्य और शाश्वत आत्मा निहित है इन्हें पढ़े बिना न तो भारतीय जीवन के दृष्टिकोण को आत्मसात किया जा सकता है और न ही मनुष्य के गन्तव्य और पाथेय का ज्ञान हो सकता है । इनमें हमारी आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक चेतना संरक्षित है। लोक जीवन के समस्त पक्ष इनमें प्रतिबिम्बित होते हैं। संसार का ऐसा कोई कल्पना एवं योजना नहीं जिसका निरूपण पुराणों में नहीं हुआ हो । अपने रोचक आख्यानों द्वारा जन-जन को प्रभावी शिक्षा देने में पुराण सफल सिद्ध हुए हैं। पौराणिक साहित्य ने मूल्यों के विकास हेतु ऐसे आधारपीठ का सृजन किया जिस पर हमारी सांस्कृतिक धरोहर चिरकाल तक अपना अस्तित्व अक्षुण्ण रख सके । आज बदलते हुये परिवेश में हमारे प्राचीन मूल्य उतने प्रासंगिक सिद्ध नहीं हो रहे हैं अपितु उनके स्थान पर नवीन मूल्यों ने स्वयं को स्थापित किया है । I पुराण हमारे प्राचीन मूल्यों को जीवन में उतारने का आदेश नहीं देते अपितु सुहृदसम्मित शैली में मनुष्य को वैचारिक ऊष्मा प्रदान करके स्वैच्छिक निर्णय लेने का दर्शन स्थापित करते हैं। गरुड़ पुराण के प्रथम खण्ड में सामान्य धर्म के रूप में अहिंसा आदि को स्वीकार किया गया है। - अहिंसा, सूनृता वाणी, सत्य शौचे, दया, वर्णिना लिंगिना चैव सामान्यो धर्म उच्यते । इससे यह विदित होता है कि पुराण हमारे व्यवहार को नियन्त्रित करने के स्रोत रहे हैं । इनमें धर्म की सूक्ष्मतम विवेचना करते हुये आचारशास्त्र के सिद्धान्तों का आश्रय लिया गया है । " धर्म एवापवर्गाय''' कहकर कूर्म पुराण उसे मोक्ष का द्वार स्वीकार करता है । वामनपुराण धर्म के द्वारा उन कार्यों एवं आचरणों की ओर संकेत करता है जो मानव व्यवहार को नियन्त्रित करते हुये समाज में सन्तुलन बनाने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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