SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जी. सी. चौहान SAMBODHI का भाग मिलता था । कौटिल्य ने भी पिता और पति की सम्पत्ति पर स्त्रियों के अधिकार को उचित माना है ।" उनका मत है कि विधवा एवं पुत्रहीन स्त्री पिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकारणी है । मिताक्षर के मतानुसार मृत पति के सम्पूर्ण धन को पुत्र के अभाव में विधवा उस की अकेली अधिकारणी है।" ऐसा लगता है कि कुछ स्मृतिकारों ने स्त्री के समान अधिकारों का प्रतिपादन एवं उनकी आर्थिक स्थिति का आकलन किया और स्त्रियों के प्रति अत्यन्त उदार एवं संवेदनशील मत की अभिव्यंजना की है। स्मृतिकाल में स्त्री के प्रति सहानुभूति और आदर का वातावरण निर्मित लगता है । अतः स्मृतिकारों ने उनके आर्थिक जीवन को सुगम बनाने के विचार से उनके सम्पत्ति के अधिकार को स्वीकारा है । स्त्री-धन 64 अधिकतर स्मृतिकारों ने स्त्री- धन का उल्लेख किया है। स्त्री की अपनी स्वयं की सम्पत्ति, जिस पर केवल स्त्री का पूर्ण अधिकार होता था और उस धन पर पति, पुत्र एवं पुत्रवधू का कोई अधिकार नहीं होता था । स्त्री - धन कहलाता था । स्त्री धन का सीधा अर्थ स्त्री की अपनी सम्पत्ति से था जो स्त्री को वैवाहिक अग्नि के समक्ष दिया जाता है या जो कन्या को विवाह के समय प्राप्त होता है। जो धन माता-पिता और भाईयों से प्राप्त होता था वह सब स्त्री - धन है। मनु के मतानुसार स्त्री- धन छः भागों में जाता है । (अ) विवाह के समय अग्नि के समक्ष पिता के द्वारा जो कुछ दिया जाए। (आ) कन्या को विदाई के समय जो कुछ सगे-संबंधियों द्वारा दिया जाता है (इ) स्नेहवश जो कुछ कन्या को दिया जाए। (ई) भाईयों द्वारा प्रदत्तधन ( उ ) माता द्वारा प्रदत्त धन (ऊ) पिता द्वारा प्रदत्त वस्तुएँ स्त्री- धन कहलाती है। विवाह के पश्चात् मिलने वाली भेटों को भी मनु ने स्त्री- धन माना है। स्मृतिकारों ने विवाह के पश्चात् सास, ससुर से पादवन्दनादि प्रथा में स्त्री को जो कुछ भी प्राप्त होता है वह भी स्त्री - धन का भाग माना है । १° विष्णु स्मृति से हमें पता चलता है कि स्त्री- धन पति के द्वारा प्रदत्त, माता द्वारा प्रदत्त, पुत्रों द्वारा प्रदत्त, भाईयों द्वारा प्रदत्त, अन्य स्त्रीयों से विवाह के समय पति द्वारा प्रदत्त, सम्बन्धियों द्वारा प्रदत्त एवं विवाह के पश्चात् पितृकुल एवं पतिकुल से प्राप्त धन - स्त्री- धन कहलाता है । ११ स्मृतिकारों ने अध्यहीन, अध्यावहनिक, प्रीतिदत्त, शुल्क, अन्वाधेयर और सौदायिक । १३ ये सब स्त्री - धन के प्रकार माने हैं। जय शंकर मिश्र के मतानुसार " सम्पत्तिविभाजन के समय पत्नी या माता का पुत्र के समान अंश अपरार्क ने भाईयों के अंश के एक चौथाई भाग को स्त्री-धन माना है । १४ अतः पति द्वारा अपनी पत्नी को उत्तराधिकार में दी गई सम्पत्ति भी स्त्री का धन ही है । १५ और जो धन आसुर विवाह में अभिभावक द्वारा कन्या के निर्मित्त लिया जाता है । वह भी सभी स्त्री-धन माना जाता है ।१६ धीरे-धीरे स्त्री-धन के घेरे में और सम्पत्ति भी आने लगी और पति की सम्पत्ति भी स्त्री-धन में समाविष्ट होने लगी। इस बात से यह पता चलता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री का परिवार की सम्पूर्ण सम्पत्ति में भाग होता था और वह अपनी इच्छानुसार इसका उपयोग कर सकती थी। मनु के मतानुसार किसी भी नारी को उसके पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री-धन से वंचित नहीं रख सकते है । १७ स्त्री- धन के अन्तर्गत परिवार की भूमि के अतिरिक्त उसके मूल्यवान आभूषण भी होते थे जिनका वह स्वयं उपयोग करती थी। स्त्री अपनी धन-सम्पत्ति के साथ-साथ अचल सम्पत्ति को बंधक रख सकती थी एवं बेच भी सकती थी । " स्त्री इस धन को खर्च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy