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________________ Vol. XXVIII, 2005 प्राकृत-साहित्य में जनसामान्य की सशक्त अभिव्यक्ति विधा शब्द प्रधान होती । मम्मटभट्ट ने एक दूसरी विधा मित्रसम्मित बताई है । इसमें अर्थ की प्रधानता होती है । संस्कृत में रचित इतिहास, पुराण, कथा-कहानी का समूचा वाड्मय इस विधा के अन्तर्गत आता है। जैनपुराण, वसुदेव हिंडि, आगम- साहित्य तथा आगमों की व्याख्याओं में निबद्ध कथाएं, विविध वर्णन, चरित - साहित्य, जातक कहानियाँ इत्यादि समस्त वाड्मय का संग्रह इस विधा के अन्तर्गत हो जाता है । यह समूचा वाड्मय भी प्रथम धारा से सम्बद्ध होने के कारण संरक्षित, सुरक्षित तथा अविच्छिन्न रहा । वस्तुतः वाङ्मय की यहा धारा पूर्वोक्त शब्द प्रधान धारा की उपधारा के रूप में ही पनपी । मम्मटभट्ट ने एक तीसरी विधा कान्तासम्मित की विस्तार से व्याख्या की । इसे उन्होंने प्रसंग के अनुरोध से कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे कहा । इसमें शब्द और अर्थ दोनों ही गौण हो जाते हैं । शब्द और अर्थ से भिन्न व्यंग्यार्थ ही इसका प्राण होता है। साहित्य की इसी विधा को रमणीयार्थ- प्रतिपादक - शब्द, रसात्मकवाक्य, दोषरहित, गुणान्वित एवं अलंकृत रचना इत्यादि कह कर परिभाषित किया गया । प्रस्तुत आलेख में प्राकृत साहित्य से इसी विधा में रचित साहित्य का ग्रहण किया गया है। प्राकृत में रचित यह साहित्य उतना विस्तृत और सुव्यवस्थित नहीं दिखता जितना संस्कृत साहित्य है । संस्कृत में काव्य - साहित्य दृश्य तथा श्रव्य के मूल भेद एवं तदन्तर्गत उपभेदों से सुसमृद्ध है । इसके विपरीत प्राकृत-साहित्य प्रायः स्फुट पद्यों के रूप में मिलता है। कर्पूरमञ्जरी के अतिरिक्त प्राकृत में रचित विलासवती चन्दलेहा, आनन्दसुन्दरी, सिंगारमंजरी तथा रंभामंजरी यह पाँच सट्टक और मिलते हैं। विलासवती केवल नामावशेष है। कर्पूरमञ्जरी के अतिरिक्त अन्य सभी सट्टक सतरहवीं, अट्ठारहवीं शती की रचनाएं हैं। चतुर्भाणी में चार भागों का संग्रह प्रकाशित हुआ है । फुटकर काव्य साहित्य में गाहासत्तसई की तरज पर वज्जालग और गाथासहस्त्री का संकलन हुआ । सेतुबंध, वासवदत्ता, गउडवहो, महुमहविअअ, हरिविजय, रावणविजय, विसमबाणलीला, लीलावई, कुमारवाल चरिअ, सिरिचिंघकव्व, सोरिचरित, भृंगसंदेश, हंससंदेश, कुवलयाश्वचरित, कंसवहो, उसाणिरुद्धं आदि कुछ गिनीचुनी रचनाऐं ही प्राकृत में मिलती हैं। महाराष्ट्री प्राकृत में रचित सेतुबन्ध उत्तम प्राकृत काव्य है । यह समूचा काव्यसाहित्य संस्कृत में रचित काव्यसाहित्य की तुलना में अत्यल्प है तथा अधिकांश संस्कृत रचनाओं का अनुकरण मात्र है । कल्पना की जा सकती है कि विशाल फुटकर प्राकृत साहित्य की रचना हुई परन्तु वह संरक्षित न रह सका । इसका कारण भी स्पष्ट है । संस्कृत साहित्य का सम्बन्ध समाज जिस संभ्रान्त वर्ग से है उसने साधन-सम्पन्न होने के कारण सम्भ्रान्त - जन - भाषा में रचित साहित्य को सब प्रकार के परिष्कार तथा संस्कारों से सज्जित एवं सुव्यवस्थित कर संरक्षित किया । तत्कालीन समाज में उसकी मान्यता और श्रेष्ठता भी अक्षुण्ण बनी रही । कवि-सम्प्रदाय ने भी इसी समाज को अपनी कृति का निकष माना । यह सुव्यवस्थित साहित्य सब प्रकार से संरक्षित होकर चिरकाल तक स्थाई रहा । इस काव्यसाहित्य के स्वरूप को सुरक्षित एवं संरक्षित बनाए रखने के लिए व्याकरण तथा काव्यशास्त्र के लक्षणग्रन्थों की रचना बराबर होती रही। इस प्रकार लक्षण और लक्ष्य ग्रन्थों का परस्पर अन्योन्याश्रित नियमबद्ध विकास होता रहा । इस संरक्षण के विपरीत प्राकृत साहित्य, विशेषतः आंचलिक . साहित्य का अभिभव, संस्कृत साहित्य की तुलना में अवर श्रेणी का होने के मिथ्या कारण से तो हुआ ही, प्राकृत भाषा में रचित विशाल साहित्य, जो प्रधानतः धर्माचार्यों के उपदेश के रूप में था, जिसे इस प्रबन्ध में प्रभुसम्मित तथा मित्रसम्मित कहा है, से भी भरपूर हुआ । जीवन सदा गतिमान होता है, इसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only 109 www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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