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________________ 108 जयपाल विद्यालंकार SAMBODHI गाँव में भिक्षा के लिये आये महात्मा को युवती ने भिक्षा दी और कहा - हे महाराज ! अब आप वहाँ गोदावरी तट पर निःशंक भ्रमण करो, अब कोई बाधा वहाँ नहीं है । वह कुक्कुर जो आप को तंग करता था उसे वहीं गोदावरी तट के भयंकर गर्त में रहनेवाले सिंह ने मार डाला है। महात्मा प्रसन्नता पूर्वक भिक्षा ग्रहण करके जब लौटे और गाथा के अर्थ को टटोला तो समझ में आया कि अब तक तो वहाँ कुक्कुर का भय था परन्तु अब भयंकर सिंह है और वह वहीं गोदावरी-गों में रहता है । यहाँ से भागो अन्यथा मरण निश्चित है । आलंकारिकों ने इसे अभिधामूला-ध्वनि का उदाहरण मान कर यह स्पष्ट किया है कि . जहाँ प्रकरण पर्यालोचन के बाद विध्यर्थ, निषेध परक अर्थ में बदल जाता है वहाँ ध्वनि ही माननी चाहिये। विपरीत लक्षणा का अवसर वहाँ होता है जहाँ तुरन्त विधि से निषेध या निषेध से विध्यर्थ की प्रतीति हो । इस प्राकृत गाथा ने भी प्रायः सभी आलंकारिकों को आकृष्ट किया है। . गाहाकोश / गाथासप्शती । सप्तशतीसार इस प्रकार के उदाहरणों से भरपूर हैं । वस्तुत: इन संग्रहों . की प्रत्येक गाथा व्यंग्य से आप्लावित है और उस समय के ग्रामीण जीवन के सहज प्रेम-प्रसंगों का आस्वादन सहदयों को कराती है। गोदावरी के तटीय प्रदेश प्रतिष्ठान के राजा हाल का यह प्राकत संग्रह जिसे गाहाकोश, सत्तसइ या गाथासप्तशती नाम से भी जाना जाता है । प्राकृत साहित्य का एक महत्वपूर्ण संग्रह कोश है । सातवीं शती के बाणभट्ट ने इसकी प्रशंसा में लिखा - अविनाशिनमग्राम्यमकरोत्सातवाहनः । विशुद्धजातिभिः कोषं रत्नैरिव सुभाषितैः ॥ हर्षचरित १-१३ सुभाषित रत्नों से भरे इस कोश से हमने सरसरी तौर पर कुछ उदाहरण ही यहाँ स्थालीपुलाक न्याय से प्रस्तुत किये हैं । तत्कालीन ग्राम्य जीवन के हर पहलू को शब्द चित्रों से इन गाथाओं में उकेरा गया है । इस छोटे से आलेख में इन शब्दचित्रों का सर्वांगीण चित्रण न तो संभव है और न ही इस प्रकार का प्रयत्न यहाँ किया गया है । यह दिग्दर्शन मात्र है। ___ प्राकृत साहित्य के विकास को तीन धाराओं में विभक्त करके देखा जा सकता है । जनसामान्य की विविध क्षेत्रीय बोलियाँ जिन्हें संस्कृत की तुलना में प्राकृत नाम दिया गया, का महत्व सर्वप्रथम बौद्ध और जैन धर्म-प्रवर्तकों ने समझा । उनका समूचा उपदेश-साहित्य प्राकृत भाषा के विविध स्वरूपों में निबद्ध हुआ । बुद्धवचन की मूल भाषा मागधी ही थी - सा मागधी मूलभासा नरा यायादिकप्पिका । ब्राह्मणा चूस्सुतालापा सम्बुद्धा चापि भासरे ॥ बाद में विभिन्न प्रदेशों से आये भिक्षुक संघ में इकट्ठे रहते थे और मागधी में अपनी अपनी भाषा का मिश्रण कर देते थे। भगवान बुद्ध ने भी भाषा के सम्बन्ध में इस प्रकार की छूट दे रखी थी। अनुजानामि भिक्खवे, सकायनिरुत्तया बुद्धवचनं परियापुणितं । मागधी प्रधान यह मिश्रित भाषा ही कालान्तर में पाली कहलाई। जैन-धर्मग्रन्थ मागधी, अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत संगहीत हए । प्राकत साहित्य की यह धारा धर्म-प्रवर्तक आचार्यों तथा उनके अनयायियों के गौरव के कारण, समाज में प्रतिष्ठा के कारण और समय समय पर उलब्ध राज्याश्रय के कारण संरक्षित और अविच्छिन्न रही । ग्यारहवीं शती में आचार्य मम्मट ने साहित्य की इस समूची विधा को प्रभुसम्मित कहा है । संस्कृत में निबद्ध समूचा श्रुति, स्मृति साहित्य भी इसी श्रेणी में समाहित हो जाता है। यह समूची Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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