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________________ 110 जयपाल विद्यालंकार SAMBODHI कभी ठहराव नहीं आता । यह अकल्पनीय है कि विशुद्ध प्राकृत में केवल कुछ गिने-चुने ही सट्टक रचे गये। महाराष्ट्र के ग्राम्य जीवन की झलक राजा हाल के संग्रह सप्तशती की सातसौ गाथाओं तक ही सीमित रही । एक ही सेतुबन्ध की रचना हुई । महाराष्ट्री प्राकृत के अतिरिक्त मागधी, अर्ध-मागधी, शौरसेनी, अवन्तिका, प्राची, पैशाची प्राकृत तथा अनेक बोलियाँ हैं । प्राकृत भाषा के ये विविध रूप जीवित जागृत विस्तृत जनसमुदाय की भाषा थे। इन भाषाओं में साहित्य सृजन स्वाभाविक है और निश्चय ही इस विशाल जनसमुदाय का यह साहित्य रचा गया होगा । परन्तु समाज के सम्भ्रान्त भद्रजनों की उपेक्षा, राज्याश्रय का अभाव, प्रभुसम्मित (धार्मिक साहित्य) से अभिभव आदि कारणों से सृजन के साथ ही अल्पकालजीवी होकर यह विशाल साहित्य कालकवलित हो गया । जो शेष बचा वही उस समय के आम आदमी के जीवन का यथार्थ दर्पण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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