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वसन्तकुमार भट्ट
SAMBODHI
सत्य' का उदाहरण बताते हुए वे कहते हैं कि - "ब्राह्मण ! कन्या ते गर्भिणी जाता" ऐसा सत्य होने पर भी, अप्रिय होने के कारण नहीं बोलना चाहिए । वहाँ पर कन्या का जो प्रथम दर्शन करनेवाला हो, उसे मौन का सेवन करना चाहिए । उसे ऐसा सदाचरण करना प्राप्त होता है ।२२ कुल्लूकने कहा है कि - सत्य होने पर भी "भो ब्राह्मण ! पुत्रस्ते मृतः" ऐसा वचन अप्रिय होने के कारण नहीं बोलना चाहिए ।२३
(ग) पूर्वोक्त श्लोक (४.१३८) के तृतीय चरण में - 'प्रियञ्च नानृतं ब्रूयात्' - प्रिय हो ऐसा जूठ भी नहीं बोलना चाहिए" - ऐसा कहा गया है । यहाँ पर भी 'प्रियम्' शब्द, 'अनृतम्' का विशेषण है ऐसा माना गया है। कन्या गर्भिणी होने पर भी, वह गर्भिणी नहीं हुई है ऐसा कहना प्रिय होते हुए भी असत्य होने के कारण नहीं बोलना चाहिए । अर्थात् इस तीसरे चरण में मिथ्यावाद का भी निषेध किया गया है ।
इस तरह टीकाकारों की दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त तीनों वाक्य अत्यंत सीधे सरल लगते है । परन्तु टीकाकारों ने जिन उदाहरणों के परिप्रेक्ष्य में उक्त श्लोक का अर्थघटन सोचा है वह बड़ा संकुचित है । और दूसरे वाक्य (न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्) के सन्दर्भ में जो मौन रखने की सलाह दी गई है वह सर्वथा ग्राह्य नहीं बन सकती है । एवञ्च वर्तमान जीवन के सन्दर्भ भी बड़े व्यापक हो गये हैं । अत: पूर्वोक्त श्लोक के नये अर्थघटन अपेक्षित लगते हैं । तद्यथा -
यहाँ पर सबसे पहले यही बात ध्यातव्य है कि सत्य का उद्घाटन होना चाहिए इस मूलभूत आशय के साथ तो तनिक भी समझौता नहीं करना चाहिए । हाँ, सत्य का उद्घाटन कैसे किया जाय ? इस विषय में विवाद हो सकता है। जैसा कि - टीकाकार मेधातिथि ने कहा है कि प्रथम चरण में 'सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात्' में, प्रथम वाक्य 'नियम' प्रकार का वाक्य है, और 'सत्यम्' पद 'ब्रूयात्' (क्रियापद) का कर्मकारक है । तथा द्वितीय वाक्य में सत्य बोलने की विधि' बताई गई है; अर्थात् 'प्रियम्' शब्द 'ब्रूयात्' क्रियापद का क्रियाविशेषण है। अब दोनों वाक्य मिल कर, पूरा पादार्थ ऐसे बनेगा:- “सत्य ही बोलना चाहिए, लेकिन प्रिय लगे इस रीति से बोलना चाहिए"।
अब दूसरे चरण में, "न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्" शब्दों का टीकाकारों ने जो अर्थ दिया है वह विवादास्पद भी है और अग्राह्य भी है । टीकाकारों ने यहाँ पर 'अप्रियम्' शब्द को 'सत्यं' का (कर्मकारक का) विशेषण माना है । और "भो ब्राह्मण, कन्या ते गर्भिणी जाता' । जैसा उदाहरण लेकर, ऐसे प्रसङ्गों में मौन रहना चाहिए ऐसा कह कर सत्य का संवरण करने की सलाह (राय) दी है । परन्तु उक्त सन्दर्भ को बदल कर हम कहे कि कोई पेथोलोजीस्ट या रेडीओलोजीस्ट डॉक्टर यदि कैंसर जैसे कोई असाध्य रोग का निदान करते समय, "यह मेरा सत्य रोगी को अप्रिय लगेगा" ऐसा सोचकर उसे न कहे; और कहे कि "आप किसी दूसरे डॉक्टर को मिलें" तो क्या वह धर्माचरण कहा जायेगा ? डॉक्टर के लिए तो वही धर्माचरण कहा जाता है कि वह अप्रिय हो तो भी सत्य ही बताये । अतः अप्रिय सत्य को न कहना - यह कोई सदाचरण रूप धर्माचरण नहीं कहलाता।