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Vol. xxVII, 2004
धर्माचरण का एक पर्याय - सत्यवाणी
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इस तरह टीकाकारों के मत का अग्राह्यत्व बताते हुए, हम फिर से उस बात का स्मरण करते हैं कि सत्य का उद्घाटन होना चाहिए इस मूलभूत आशय के साथ तनिक भी समझौता नहीं करना चाहिए। प्रश्न यही हो सकता है कि सत्य का प्रकटीकरण कैसे किया जाय ? अतः इस दूसरे चरण का अर्थघटन करते समय टीकाकार मेधातिथि यह भूल जाते है कि प्रथमचरण में जैसे 'प्रियं' शब्द को क्रियाविशेषण लिया गया है, वैसे इस द्वितीय चरण में भी 'अप्रियं' को भी क्रियाविशेषण लेना है। (अर्थात् सत्य को अप्रिय लगे इस तरह से नहीं बोलना चाहिए ।) टीकाकार सर्वज्ञ नारायण ने कहा है कि - 'न ब्रूयात्..... इति व्यतिरेकोपदर्शनम् ।" (मनुस्मृतिः, सं. ज. ह. दवे, पृ. ४०२) अर्थात् प्रथम चरण में जो बात अन्वयमख से कही गई है, वही बात दसरे चरण में व्यतिरेक मख से बताई जाती है । अर्थात् प्रथम चरण में अन्वयमुख से कहा गया है कि - "सत्य को ही कहना चाहिए, लेकिन प्रिय लगे इस तरह से कहना चाहिए।" और यही बात दूसरे चरण में व्यतिरेकमुख से कही गई है कि - सत्य को (ही कहना चाहिए, लेकिन) अप्रिय लगे इस तरह से नहीं कहना चाहिए ॥
'प्रियञ्च नानृतं ब्रूयात्' इस तृतीय चरण का अर्थघटन भी इसी बात पर निर्भर है कि - 'प्रियम्' शब्द को 'अनृतं' का विशेषण लिया जाय ? या 'न ब्रूयात्' क्रियापद का क्रियाविशेषण लिया जाय ? मनुस्मृति के टीकाकारों की दृष्टि से इस तृतीय चरण में भी 'प्रियं' शब्द 'अनृतं' का विशेषण ही है । राघवानन्द नामक एक टीकाकार ने इसका उदाहरण देते हुए लिखा है कि - 'क्षत्रियं ब्राह्मणं न ब्रूयात् ।' अर्थात् कोई आदमी क्षत्रियवर्ण का है; परन्तु उसको किसी सभा में, या पंक्तिभोजनादि के प्रसङ्ग में 'यह ब्राह्मण है' ऐसा बोलकर 'प्रिय असत्य' भी नहीं बोलना चाहिए। अर्थात् इस तीसरे चरण से गलत प्रशंसा का निषेध किया गया है ।
यदि 'प्रियं' को 'अनृतं' का विशेषण न लेकर 'न ब्रूयात्' का क्रियाविशेषण लिया जाय तो 'असत्य को प्रिय तरह से भी नहीं बोलना चाहिए - ऐसा अर्थघटन करना होगा । अब यहाँ प्रश्न होगा कि असत्य को प्रिय तरह से कैसे बोला जाता है ? तो समाज में कभी कभी द्विअर्थी
का प्रयोग करके धर्मराज यधिष्ठिर जैसा आदमी भी सत्य बोलने का दम्भ करता है। यथा -
अश्वत्थामा हत इति शब्दम् उच्चैश्चचार ह । अव्यक्तमब्रवीद् राजन् हतः कुञ्जर इत्युत ॥२४ - महाभारतस्य द्रोणपर्वणि; (अ. १९०-५५) ___ यहाँ पर इस उक्ति का वक्तृपक्ष में कुछ अलग अर्थ है, और श्रोतृपक्ष में अलग अर्थ है। अतः मनुस्मृतिकार कहते है कि असत्य को प्रिय लगे इस तरह से भी अर्थात् द्विअर्थी शब्दरचना करके भी नहीं बोलना चाहिए । यहाँ एक आधुनिक सन्दर्भ लेते है:- पाकिस्तान कहता है कि काश्मीर में जो आतंकवाद चलता है वह आतंकवाद नहीं है, वह तो 'आजादी का सङ्ग्राम चलता है' !