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Vol. XXVII, 2004
धर्माचरण का एक पाय - सत्यवाणी
प्रस्तुत लेख के आरम्भ में बताया गया है कि 'धर्म' के अनेक अर्थ है । उनमें से एक अर्थ 'कर्तव्य' है और दूसरा अर्थ 'सदाचार, सद्वर्तन' ऐसा भी है । 'मनुस्मृति' के अष्टम अध्याय में, साक्षीप्रकरण के सन्दर्भ में जो सत्यवाणी रूप धर्माचरण बताया गया है, वहाँ सत्यवाणी का प्रयोग एक कर्तव्य-धर्म के रूप में उपदिष्ट है । ऐसी सत्यवाणी से ही 'लोकसङ्ग्रह' रूप कार्य सिद्ध होता है और पारलौकिक निःश्रेयस् का मार्ग प्रशस्त होता है | लेकिन मनुस्मृति के चतुर्थ अध्याय में भी सत्यवाणी के प्रयोग के सम्बन्ध में एक दूसरा अद्भुत श्लोक आया हुआ है । जिसमें -
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियञ्च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ॥ (४-१३८)
कहा गया है । यहाँ पर सत्यवाणी के प्रयोग को 'सनातन धर्म' के रूप में जो व्याख्यायित किया गया है, वह तो 'सद् वर्तन रूप धर्म' का स्वरूप है । और ऐसे सद् वर्तन या सदाचार रूप सत्यवाणी के प्रयोग से इहलोक के, अभ्युदय की सिद्धि होती है ।
परन्तु इस श्लोक का अर्थघटन एक दुष्कर कार्य है । सत्यवाणी के प्रयोग के बारे में इस श्लोक में तीन सूचन है :
(१) सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् । (२) न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । (३) प्रियञ्च नानृतं ब्रूयात् ॥
मनुस्मृति के अनेक टीकाकार है. उनके पक्षों की पहले चर्चा की जाती है:-मेधातिथि के मत में - (क) सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् । इस प्रथम चरण में दो क्रियापदों के होने से दो वाक्य हैं । अर्थबोधन के लिए प्रयुक्त होनेवाला वाक्य 'सत्य ही होना चाहिए' ऐसा पहले 'सत्यं ब्रूयात्' वाक्य से प्रदर्शित किया गया है। इस प्रथम वाक्य को हम 'नियमवाक्य' कहेंगे । और 'प्रियं ब्रूयात्' जैसे दूसरे वाक्य से 'द्वितीय विधि' बताया गया है । उदाहरण के रूप में देखे तो - प्रसङ्गानुसार यदि अन्य लोग नहीं हों तो किसी (दानी) के औदार्यादि गुणों का अनुकथन करना चाहिए इसका दूसरा उदाहरण है - यदि कोई ब्राह्मण नहीं जानता है कि उसके घर पुत्रजन्म हुआ है, तो हमे बिना कोई स्वार्थ यदि सत्य है तो सामने से बताना चाहिए कि - भो ब्राह्मण ! आप के घर पुत्र का जन्म हुआ है ।२२
(ख) पूर्वोक्त (४-१३८) श्लोक के द्वितीय चरण में कहा गया है कि - न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् ॥ यहाँ पर मेधातिथि एवं कुल्लूक आदि टीकाकारों के मत में 'अप्रियं' पद 'सत्यम्' का विशेषण है । अतः "अप्रिय हो ऐसा सत्य नहीं बोलना चाहिए" ऐसा अर्थघटन होगा । 'अप्रिय