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________________ 90 वसन्तकुमार भट्ट SAMBODHI व्यक्ति कामक्रोधादि को जीतकर, रागद्वेष से मुक्त होकर सदैव सत्यवाणी का ही प्रयोग करता है। उसके लिए सत्य ही ईश्वर का पर्याय होता है । एवञ्च व्यवहारकाल में सत्यवाणी के प्रयोग से ही दण्डनीय व्यक्ति को दण्ड मिलता है, जिसके परिणाम स्वरूप अधर्म का नियमन भी होता है। अर्थात् सत्यवाणी के प्रयोग से ही स्वतः रूप से 'लोकसङ्ग्रह' का कार्य भी सिद्ध होता है । परन्तु सामान्य मनुष्य-आमआदमी के लिए सत्य बोलना प्रायः सम्भव नहीं होता है । क्योंकि वास्तविक जीवन में वह कामक्रोधादि षड्रिपुओं का शिकार बन ही जाता है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हए मनुने लोभ, मोह, मैत्री, काम, क्रोध, अज्ञान एवं बालभावादि से प्रेरित हो कर एकबार असत्य बोलनेवालों के लिए अलग अलग प्रकार के दण्डों का विधान किया है । (द्रष्टव्यः मनुस्मृति- ८/११८-१२१) तथा जो मनुष्य बार-बार असत्य वचन बोल कर कूटसाक्षी देता है, उसके लिए मनुने शारीरिक दण्ड९ का भी विधान किया है । इस दण्डविधान का प्रयोजन बताते हुए मनुने कहा है कि - एतानाहुः कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान् दण्डान् मनीषिभिः । धर्मस्याव्यभिचारार्थम् अधर्मनियमाय च ॥ - मनुस्मृतिः ८-१२२ धर्म की व्यवस्था बनी रहे, एवं अधर्म का नियमन किया जा सके इसलिए यह दण्डविधान किया गया है । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जो कहा है कि - परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ (गीता ४-८) "दुराचारीओं के विनाश के लिए और धर्म की संस्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में अवतार लेता हूँ ॥" बस, यही 'लोकसङ्ग्रह' की बात मनुस्मृतिने भी दण्डविधान के सन्दर्भ में कही है। हमारे स्मृतिग्रन्थकारों ने धर्माचरण का जो विधान विशेष अपवाद रूप स्थलों के साथ, सामान्यनियमपूर्वक प्रस्तुत किया है वह तो ध्यानास्पद है ही परन्तु उसमें इह लोक की अपकीर्ति के साथ मरणोपरान्त नरकलोक में निवासादि रूप फलपर्यन्त ही धर्माचरण की स्थापना का वर्णन सीमित नहीं रखा है; उसमें दण्डविधान का भी जो प्रावधान किया है वही बात वर्तमानयुग में भी उन स्मृतिग्रन्थों की प्रस्तुतता सिद्ध करती है । हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥२० - ईशावास्योपनिषद् (मन्त्र-१५) "रागद्वेषादि रूप हिरण्मय पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है, हे परमात्मा ! उसको खोल दो, जिसके फल स्वरूप हम सत्यधर्म के दर्शन पा सके" - ऐसा श्रुतिवचन ही हमारी नित्य की प्रार्थना है और स्मृतिग्रन्थों के प्रणयन का प्रेरक परिबल है । अतः हमारे स्मृतिग्रन्थों की न केवल वर्तमान में, अपि तु सर्वकाल में प्रस्तुतता बनी रहती है || अस्तु ॥
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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