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________________ 89 Vol. XXVII, 2004 धर्माचरण का एक पर्याय - सत्यवाणी ___ यद्यपि गौतमधर्मसूत्र में भी विवाहादि प्रसङ्ग में अनृत भाषण मान्य करनेवाले कुछ आचार्यों का निर्देश है; परन्तु स्वयं गौतम तो ऐसे स्थलों में भी असत्य भाषण को मान्य नहीं करते है । यथा - विवाहमैथुननर्मातः संयोगेषु अदोषम् एकेऽनृतम् । (गौ. ध. सू. २३-३०) विवाहकाल में जब कन्याविदाय या बारात के आगमन का समय होता है; मैथुन प्रसङ्ग में गोत्रस्खलनादि होने पर या नर्म-परिहासार्थ एवं दुःखी या रुग्ण व्यक्ति को दुःखशमनार्थ जो अनृतपूर्ण वचन कहा जाता है - वह दोषजनक नहीं है ऐसा कतिपय आचार्य लोग मानते है । परन्तु गौतम तो ऐसे प्रसङ्गो में भी अनृतवाणी का समर्थन नहीं करते है ।१७ अब जिन आचार्यों ने अपवादरूप से विवाहादि प्रसङ्गों में हास-परिहास जैसे निर्दोष हेतुओं के लिए अनृतवाणी का प्रयोग मान्य किया है, उन आचार्यों ने इस अपवाद के अपवाद का भी निरूपण किया है । वे कहते हैं कि, अपने गुरुजनों - मातुल या आचार्यादि के साथ तो हासपरिहासार्थ भी असत्यवाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।८ 'मनुस्मृति' में सत्यवाणी की प्रशंसा करते हुए एवं उनका फल बताते हुए जो कुछ कहा गया है वह भी ध्यातव्य है । क्योंकि सत्यवाणी के प्रयोग का यदि दार्शनिक पक्ष स्पष्ट नहीं किया जायेगा तो कोई भी मनुष्य सत्यवाणी का प्रयोग ही नहीं करेगा । अतः मनुस्मृतिकार सत्यवाक् की प्रशंसा और फलकथन करते हुए लिखते है कि - सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन् साक्षी लोकान् आप्नोति पुष्कलान् । इह चानुत्तमां कीर्ति वाग् एषा ब्रह्मपूजिता ॥ - मनुस्मृतिः ८-८१ साक्ष्य कर्म में यदि मनुष्य सत्य बोलता है तो ऐसा साक्षी उत्कृष्ट लोक को प्राप्त करता है; और इस पृथिवीलोक में उसकी उत्तम कीर्ति भी बढ़ती है । ऐसी सत्यवाणी का पूजन-सम्मानस्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा भी करता है । गौतमधर्मसूत्र में भी कहा है कि - सर्वधर्मेभ्यो गरीयः प्राड्विवाके सत्यवचनं सत्यवचनम् ॥ - गौतमधर्मसूत्रम् (१३-३१) “व्यवहारकाल में प्राड्विवाक के सम्मुख सत्यवचन बोलना तो श्रुति स्मृति में उपदिष्ट सभी धर्मों में सर्वोत्कृष्ट माना गया है ।" परन्तु मनुष्य को सत्य क्यों बोलना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान देते हुए भगवान् मनु ने (८-८४ में) कहा है कि आत्मा ही आत्मा की साक्षी है । मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आत्मा की अवमाननाअवगणना न करे, क्योंकि अपनी अन्तरात्मा ही सब से ऊँची साक्षी है । पापी मानता है कि उसे कोई देखता ही नहीं है; परन्तु कम से कम उसकी अपनी आत्मा तो उसके पापकर्म को देखती ही है । अतः सत्य बोलने का प्रथम कारण तो यही है कि आदमी अपनी ही अन्तरात्मा की अवमानना न करे । उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानम् अवसादयेत् (अ. ६-५) वाली श्रीमद्भगवद्गीतोक्त दार्शनिक पृष्ठभूमि पर जो असामान्य व्यक्ति खड़ा है वही व्यक्ति सत्यवाणी का प्रयोग कर सकता है । ऐसा
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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