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धर्माचरण का एक पर्याय - सत्यवाणी*
वसन्तकुमार भट्ट
भूमिका : भारतीय मनीषाने ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में विविध शास्त्रों का प्रणयन किया है। उनमें से एक 'धर्मशास्त्र' भी गणनाह एवं प्राचीन शास्त्र है । 'धर्म' शब्द का प्रयोग वेदकाल' से लेकर महाभारत एवं पूर्वमीमांसा आदि अनेक ग्रन्थोंमे दिखाई पड़ता है । परन्तु कोशकारों से यदि 'धर्म' शब्द का अर्थ पूछा जाय तो उन्होंने 'धर्म' शब्द के अनेक अर्थ दिये है: (१) कायदा कानून, (२) व्यवहार, (३) कर्तव्य, (४) अधिकार, (५) न्याय, (६) नीति, (७) किसी जाति एवं सम्प्रदाय के प्रचलित आचार या क्रियाकाण्ड, (८) वस्तु का गुणधर्म या स्वभाव, (९) सदाचरण, (१०) मृत्यु के देवता यम एवं, (११) सत्य' इत्यादि । अतः प्रोफे. पाण्डुरङ्ग वामन काणे महाशय कहते है कि कालप्रवाह में इस शब्द का अर्थ निरन्तर बदलता रहा है । फिर भी (१) मनुष्य के अधिकार, कर्तव्य एवं ऋण तथा (२) आर्यप्रजा के एक सदस्य के रूप में, या (३) किसी एक 'वर्ण' के व्यक्ति के रूप में तथा (४) जीवन की धारा के किसी एक मोड़ पर वैयक्तिक रूप से किसी भी मनुष्य के सदाचरण या सद्वर्तन को "धर्म" कहते है । इस तरह हमारे धर्मशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में 'धर्म' शब्द की पूर्वोक्त विभिन्न अर्थच्छायाओं को लेकर बड़ी व्यापक दृष्टि से आर्यप्रजा के धर्माचरण का निरूपण किया गया है ।
धर्माचरण के इस निरूपण में एक 'नियम' (Law) या 'कर्तव्य' (Duty) के रूप में तथा 'सदाचार' (conduct) के रूप में सत्यवाणी का ही प्रयोग कहना चाहिए-इसका विधान आता है । अतः सत्यवाणी के सन्दर्भ में गौतमधर्मसूत्र एवं मनुस्मृति का क्या कहना है ? और आधुनिक युग में उन विचारों कि प्रस्तुति एवं उपादेयता किस तरह से है ? उसकी चर्चा करना यही प्रस्तुत शोधपत्र का लक्ष्य है ।
मनुस्मृति के अष्टम अध्याय में राजा के द्वारा ऋणादानादि विषयक १८ प्रकार के व्यवहार कार्य का निरूपण किया गया है । व्यवहार कार्य की जो सभा होती है उसमें वेद को जाननेवाले विद्वान् ब्राह्मण होते है और राजा या उनके द्वारा नियुक्त कोई अन्य ब्राह्मण होता है । यहाँ पर ऋणादानादि का जो साक्षी होता है उसका कर्तव्य बताते हुए कहा है कि -