________________
86
वसन्तकुमार भट्ट
SAMBODHI
सभा वा न प्रवेष्टव्या, वक्तव्यं वा समञ्जसम् । अब्रुवन् विब्रुवन् वाऽपि नरो भवति किब्लिषी ॥ - (मनुस्मृतिः ८-१३)
इस श्लोक में मनुने साक्षी के द्वारा समञ्जस (= द्विधा उत्पन्न करनेवाला जो न) हो - जो स्पष्ट सत्य ही हो उसको ही बोलना चाहिए - ऐसा कर्तव्य बताया है । और सभा में जा कर मौन रहना, या असत्य बोलना पाप है ऐसा भी कहा है । यहाँ पर जिस राजसभा में व्यवहार चलता हो "वहाँ प्रवेश नहीं करना चाहिए" - ऐसा जो श्लोक के प्रथम पाद में कहा गया है; वह प्रथम दृष्टि में उचित नहीं लगता है । लेकिन टीकाकार मेधातिथि उसकी सङ्गति बिठाते हुए कहते है कि - व्यवहार के स्थल पर, स्वयं - बिना बुलाए-जाकर 'साक्षी' होने का अधिकार नहीं माँगना चाहिए।" गौतमधर्मसूत्र के तेरहवे अध्याय के एक सूत्र से भी उसकी दूसरे प्रकार की सङ्गति मिलती है :
नासमवेता अपृष्टाः प्रब्रूयुः । (गौ. ध. सू. १३-६) अवचने च दोषिणः स्युः । (गौ. ध. सू. १३-७)
अर्थात् जहाँ तक सभा में आवश्यक सभी लोग उपस्थित नहीं होते है; या जब तक आपको -साक्षी को - नहीं पूछा जाता है तब तक नहीं बोलना चाहिए । परन्तु साक्षी को पूछे जाने पर उसको सत्य हि बताना चाहिए । यदि वह सत्य नहीं बताता है तो वह दोषी बनता है । गौतम धर्मसूत्रकार ने व्यवहारकाल में सत्यवाणी का फल बताते हुए कहा है कि स्वर्गः सत्यवचने, विपर्यये नरकः । (गौ. ध. सू. १३-८) सत्य बोलने का फल स्वर्गप्राप्ति है और असत्य भाषण का फल नरक है । इसी फलकथन का, मनुस्मृति में बडा विस्तार किया गया है । जिसका सारभूत एक श्लोक है :
सत्येन पूयते साक्षी, धर्मः सत्येन वर्धते । तस्मात् सत्यं हि वक्तव्यं, सर्ववर्णेषु साक्षिभिः ॥ - मनुस्मृतिः (८-८३)
"सत्यवचन" से साक्षी पवित्र होता है; सत्यवचन से धर्म की अभिवृद्धि होती है । इस लिए सभी वर्गों के साक्षियों को सत्य ही बोलना चाहिए ।"
इस तरह साक्षी-प्रकरण में सत्यवाणी के प्रयोग को एक कर्तव्य के रूप में धर्माचरण माना गया है । परन्तु हमारे धर्मशास्त्रीय नियमों की सर्वकाल में उपादेयता इस लिए भी दिखाई पड़ती है कि उसमें यत्र-तत्र सर्वज्ञ आपद्धर्म एवं अपवाद स्थानों का भी परिगणन किया गया है । जैसे कि पूर्वोक्त विषयो में ही 'मनुस्मृति' ने कहा है कि -
शूद्र-विट्-क्षत्र-विप्राणां यत्रतॊक्तौ भवेद् वधः । तत्र वक्तव्यम् अनृतं, तद्धि सत्याद् विशिष्यते ॥ - मनुस्मृतिः (८-१०४)