SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 कमलकुमार जैन SAMBODHI निज्जरा संज्ञा शब्द और निज्जरेइ क्रियापद के रूप में आया है । २९वें प्रश्नोत्तरात्मक अध्ययन में कहा है कि, वाचना के द्वारा जीव क्रमों की निर्जरा करता है ।४९ तप और निर्जरा संबंधी एक विशेष उल्लेख निम्नानुसार है-संयमी जीव द्वारा करोडों जन्मों से संचित पापकर्म, उनके आने का मार्ग बन्द करके तप से निर्जरित होते हैं। यह तात्त्विक विधान तालाब के रूपक से स्पष्ट किया है। इस रूपक में आत्मा सरोवर है, कर्म जल है, मन-वनच-काय की क्रिया जल के आगमन का द्वार है। आगमनद्वारों को निरुद्ध करना संवर है, और तप द्वारा अन्दर का जल निकाल देना अथवा सुखा देना निर्जरा है ।५० जो पंडित मुनि तपों का आचरण करता है, वह इस संसारसमुद्र से विमुक्त हो जाता है । इस प्रकार तप का उल्लेख उत्तराध्ययन के प्रायः प्रत्येक अध्ययन में आता है । निर्जरा के संदर्भ में द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा तथा सकगाम व अकाम (औपक्रमिक) निर्जरा के स्वतंत्र उल्लेख नहीं हैं । निदानयुक्त तप का निषेध किया गया है। बहुश्रुकमुनि कर्मों का क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए । समुद्रपालमुनि पुण्य और पाप कर्मों का क्षय करके निश्चल हुये । तप के द्वारा पूर्वसंचित क्रम क्षीण करके जयघोष व विजयघोष मुनि अनुत्तरगति में गये । महर्षि संयम व तप के द्वारा कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं ।५१ (१२) कर्मक्षय का क्रम एवं आध्यात्मिक प्रगति : जीव, अजीव, कर्मबंध, आश्रव, संवर, निर्जरा इत्यादि विवेचन उत्तराध्ययन में यत्र-तत्र विखरा हुआ है । २९ वें सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन में बंध से मोक्ष तक की यात्रा का वर्णन परिणामकारक रीति से वर्णित है। रागद्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय करने से जीव रत्नत्रय की आराधना में उद्युक्त होता है। अष्ट कर्मग्रन्थियों से छुटकारे के लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का क्रम से क्षय करता है। उसके बाद ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच, दर्शनावरणीय की नौ, अंतराय की पाँच, इस प्रकार तीन मूल और बयालीस उत्तरप्रकृत्तियों का क्षय करता है तभी सर्वलोक-प्रकाशक केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त होता है। उसके बाद वह जब तक सयोगी रहता है, तब तक तीन समय में क्रमश: बंध, स्थिति व निर्जरा होती है । तदनंतर वह कर्मबद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित, और निर्जरित होता है । केवलज्ञानप्राप्ति के बाद शेष आयु भोगकर जब अतंर्मुहुर्त आयु शेष रहती है, तब योगनिरोध में प्रवृत्त होता है । उसके बाद 'सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति' नामक शुक्लध्यान में आरूढ होता है। और क्रमश: मनोयोग, वचनयोग, आनपाननिरोध करता है। पाँच हुस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय 'समुच्छिन्नक्रिया-अनिवृत्ति' नामक शुक्लध्यान करता है। उसके बाद वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रकर्म का एकसाथ क्षय करता है। उसके बाद ही औदारिक और कार्मण शरीर का त्याग ऋजुश्रेणी को प्राप्त करता है। और अन्त में एक समय में अस्पृशद् गतिरूप ऊर्ध्वगति से कहीं भी मोड न लेता हुआ सीधे लोकाग्र में जाकर साकार उपभोगमुक्त ज्ञानोपयोगी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है ।५२ संदर्भ १. वैशिषिक सभाष्य १.१७, पृ. ३५ २. सांख्यतत्त्वकौमुदी ६७ ३. भ. गीता २.५०
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy