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कमलकुमार जैन
SAMBODHI
आप को आश्वस्त करना चाहिए ।३८ जीव कर्मसत्य होते हैं, इसका अर्थ है कि, कृत कर्मों का फल जीव अवश्य प्राप्त करते हैं । कर्मफल देने में निदान का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। चित्रमुनि और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने समान तप करने पर भी चक्रवर्ती के निदान के कारण दोनों को अनिवार्यरूप से अलग-लग फल प्राप्त हुआ।३९ चित्रमुनि कहते हैं-'मनुष्यद्वारा अचारित सभी कर्म फलित होते ही हैं, क्योंकि किये हुए कर्मों से किसी को भी छुटकारा नहीं मिलता । कडाण कम्माण न मोक्खु अस्थि ।
पर-भव में जाते हुए जीव केवल अपने कृतकर्म ही साथ लेकर जाते हैं । जीव जबतक मोक्ष प्राप्त नहीं करता, तब तक उसे प्रत्येक जन्म में कार्मण और तैजस शरीर को लेकर फिरना पड़ता है। कार्मण शरीर के उल्लेख से कर्मों की अनिवार्यता स्पष्ट होती है। पूर्वभव के अवशिष्ट कर्मों का प्रभाव वर्तमान अवस्था में दिखाई देता है । (८) कर्मों के कारण गति :
कर्मों की अनिवार्यता के कारण संसार परिभ्रमण करते हुए जीव-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक योनियों में भ्रमण करता रहता है। उसे प्राप्त होनेवाली सुगति व दुर्गति यह सब कर्मों का ही परिणाम है। सिद्धगति को यदि पंचम गति माना जाय तो वह भी कर्मक्षय से ही प्राप्त होती है, ऐसा कहा गया है। क्रमों के संसर्ग से जीव विविध योनियों में दुःख और आघात सहन करता है । देव, मनुष्य इत्यादि योनि प्राप्त कराने में मिथ्यात्व, अविरति इत्यादि हेतु कर्मों के उपादान कारण होते हैं । पापकर्मों से धनोपार्जन करनेवाला मनुष्य नरक में जाता है। वर्ण जन्म से नहीं अपितु कर्मानुसार प्राप्त होता है ।४२ उत्तरकालीन समाज में जो जन्माधिष्ठित चातुर्वर्ण्यव्यवस्था प्रतिष्ठित हुई, उसकी यह प्रतिक्रिया है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । (९) कर्मों की अवस्था :
__ योग और कषायों की सहायता से प्राप्त किये हुए कर्मों का प्रथम प्रकृतिबंध-स्थितबंध इत्यादि चार भेदों का उल्लेख तथा कर्मो की आठ मूल तथा १४८ उत्तरप्रकृतियों का विवेचन तो उत्तराध्ययन में मिलता है, परंतु आगमोत्तरकालीन साहित्य में विकसित कर्मविषयक, क्रमबद्ध सूक्ष्म विवेचन जिस प्रकार विशेषतः कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) आदि ग्रन्थों में कर्मों की १० अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन हुआ है, वैसा यहाँ देखने को नहीं मिलता है । वे कर्मों की १० अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं ।१) बंध, २. संक्रमण, ३. उद्धर्तना, ४. अपवर्तना, ५. सत्ता, ६. उदय, ७. उदीरणा, ८. उपशम, ९. निधृति, १०. निकाचना।
कर्मों की इन १० में से कुछ अवस्थाओं का विवेचन उत्तराध्ययन में बीज रूप में दिखाई देता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इन अवस्थाओं के लिए कोई सूत्र नहीं है, परंतु टीकाओं में इनका वर्णन मिलता
है।
उत्तराध्ययन में विवेचित कर्मों की अवस्था :