SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Vol. XXVII, 2004 उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्म-मीमांसा है- गुणपर्ययवद्रव्यम् ।' और गुण का लक्षण बताते हुए कहा है-'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' । गुणों के संबंध में कहा कि, अपने स्वरूप में रहते हुए उत्पन्न और नष्ट होना यही उनका परिणाम है ।३१ उसके बाद उन परिणामों के अनादि और आदिमान दो प्रकार बताये हैं। __उत्तराध्ययनसूत्र के जीवाजीवविभक्ति अध्ययन में कर्मों के आदि व अनादित्व के संबंध में दो उल्लेख मिलते हैं। स्कंध अर्थात् परमाणु अथवा पुद्गलों को प्रवाह की दृष्टि से अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त माना है ।३२ एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय जीवों के संबंध में कहा गया है कि, वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सांत हैं ।३३ इससे स्पष्ट है कि, जीव व अजीव के संपर्क से उत्पन्न होनेवाले कर्म, प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। सभी जीवों के द्वारा सभी कर्मों का क्षय संभव नहीं है। परंतु मुक्ति के लिए रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की आराधना करनेवाले व्यक्ति के संबंध में कर्म अनादि होते हुए भी वह जीव आश्रवद्वारों को . बंद कर निर्जरा के द्वारा कर्मक्षय करके अनादि कर्मों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। (६) कर्मपुद्गल अथवा कर्मरज : कषायानुगत योगप्रवृत्तियों से लेश्याओं की सहायता से जीव कर्मपुद्गलों को ग्रहण कर उनके साथ बद्ध होता है । कर्मपुद्गलों का जीव से संबंध बतानेवाला कुछ प्रतीकात्मक वर्णन उत्तराध्ययमे दिखाई देता है। वर्तमान में रमनेवाला जीव 'कर्मगुरु' अर्थात् कर्मों के भार से युक्त जीव मृत्यु के समय शोकग्रस्त होता है ।३४ आत्मा का कर्मलिप्त होना-इस बात को ज्ञाताधर्मकथा में तुंबीफल के दृष्टान्त से अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। विनयशील शिष्य देहत्याग के बाद शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्परज (अल्पकर्मयुक्त) ऋद्धिधारी देव होता है । बहुकर्म-पुद्गलरजयुक्त जीवों को बोधि अत्यंत दुर्लभ है ।३५ भोग से जीव को कर्म का उपलेप होता है, अभोग से नहीं । कर्मपुद्गलों को रज अथवा किल्बिष बताते हए कहा है कि, शीत, उष्ण, दंशमशक इत्यादि परिषह सहन करने से रज (कर्म) क्षीण होता है। नमिप्रव्रज्या अध्ययन में इन्द्र-नमिराजा से कहता है कि-आप नीरज होकर लोकोत्तम सिद्धिस्थान प्राप्त करेंगे । कर्मकिल्विषि (कर्ममलिन जीव) अनादिकाल से आवर्तमय योनिचक्र में परिभ्रमण करता है । कर्म को अनेकबार कवच की उपमा दी गई है। गीता में कहा है कि जिसकी कर्ममल में स्पृहा नहीं है, उसे कर्म लिप्त नहीं करता और जो आत्मा को तत्त्वतः जानता है, वह कर्मबद्ध नहीं होता । मोक्ष-संन्यासयोगमें श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं-'हे अर्जुन ! जिसके अंत:करण में "मैं हूँ" ऐसा भाव नहीं उसकी बुद्धि कभी भी लिप्त नहीं होती । स्वभावनियत, स्वधर्मरूपनियत कर्म करनेवाले मनष्य को किल्बिष अर्थात् पाप की प्राप्ति नहीं होती। (७) कर्मों की अनिवार्यता : कृत-कर्म उस कर्म के कर्ता पर अपना परिणाम उत्पन्न किये बिना नहीं रहता । इसलिए कालान्तर में उदय में आनेवाले कर्म-परिणामों से किसी भी जीव की मुक्ति नहीं है। कर्मों की अनिवार्यता उत्तराध्ययन में अलग-अलग प्रकार से स्पष्ट की गई है। प्राप्त परीषह यही कर्मविपाक है, इस प्रकार मुनि को अपने
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy