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कमलकुमार जैन
SAMBODHI
अल्पकालीन करता है। उनका तीव्र रसानुभव मन्द करता है तथा बहुकर्म प्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। अनुप्रेक्षाओं का फल बताने के निमित्त से चारों प्रकार के बंध का स्पष्टीकरण कर दिया है । इसके लिए 'यज्ञीय' अध्ययन का मिट्टी के गोले के दृष्टान्त से अनुभाग स्पष्ट होता है, परंतु स्थिति और प्रदेशबंध का भी द्योतक है। इन चार प्रकारों का वर्णन, भेद-उपभेदों के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र में क्रमबद्ध विवेचित है, जो उत्तराध्ययन में दिखाई नहीं देता । कर्मप्रकृति के प्रदेशाग्र (द्रव्य), क्षेत्र, काल व भाव ऐसे चार भेद निक्षेप पद्धति से उत्तराध्ययन के कर्मप्रकृति अध्ययन में स्पष्ट उवल्लिखित हैं, परंतु तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं है। (३) कर्मलेश्या :
लेश्या अध्ययन की प्रथम गाथा में छह लेश्याओं के अनुभावों का वर्णन करते हुए कहा गया है५ कि-शरीरबद्ध जीव बाह्य विषयों के संपर्क में आता है। बाह्य विषयों से प्रभावित होता है। रागद्वेष और अन्य भावों से युक्त होता है। जीव की चैतन्यशक्ति इन बाह्य रंगों से रंग जाती है। जीव लेश्याओं के माध्यम से पुद्गलों का आत्मीकरण करता है। उससे पपमय और पुण्यमय कर्म घटित होते हैं । वे सभी ज्ञानावरणीय इत्यादि आठ प्रकृतियों में विभक्त होते हैं । रागद्वेष व कषाय की दृष्टि से यह सम्बन्ध अनादि मानना पड़ता है। लेश्याओं के द्रव्य और भाव ऐसे दो प्रकार हैं । अनुभाग का लेश्याओं से निकट का संबंध है । गीता में सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी व्यक्ति के स्वभाव-विशेष का वर्णन किया गया है। वैसे ही लक्षण लेश्या-अध्ययन में दिखाई देते हैं । बौद्ध साहित्य में जो छह अभिजातियों का वर्णन है वह लेश्याओं से साधर्म्य रखता है । (४) आश्रव (पाप-पुण्य) :
आश्रव कर्मों का प्रवेशद्वार होने से उसी से कर्मबंध होता है ।२६ तत्त्वार्थसूत्र में मन-वचनकाय की क्रियाओं को योग कहा है और वही आश्रव है। वह पुण्याश्रव और पापाश्रव दो प्रकार का है। ऐसा स्पष्टीकरण उत्तराध्ययन में दिखाई नहीं देता, परंतु आश्रव शब्द का प्रयोग अनेक बार अलग-अलग संदर्भो में किया गया है । 'संयतीय' अध्ययन में 'आश्रवों का क्षय करनेवाले एवं ध्यान में लीन अनगार तथा अप्रशस्तद्वारों से आनेवाले कर्मपुद्गलों का सर्वतोभाव से निरोध करनेवाले मृगापुत्रीय महर्षि थे । निमित्तशास्त्र इत्यादि कुविद्याओं को आश्रवद्वार कहा गया है ।२८ जीवाजीवादि तत्त्वों के निर्देश में आश्रव का उल्लेख है । जीव प्रतिक्रमण करके व्रतों के छिद्र बन्द करता है और आश्वर का निरोध करता है । उसी प्रकार प्रत्याख्यान के द्वारा जीव आश्रवद्वारों का निरोध करता है। कायगुप्ति से संवर होता है और संवर से पापाश्रव · का निरोध होता है । कृष्णलेश्या युक्त जीव का वर्णन करते हुए कहा है कि, कृष्णलेश्यावाला मनुष्य पापाश्रव में प्रवृत्त रहता है। तीन गुप्तियों से अगुप्त रहता है और आरंभादि कार्यों में मग्न रहता है। रत्नत्रयसंपन्न निग्रंथ निराश्रवी व मुक्त होता है ।३० (५) काल के संदर्भ में कर्म :
कर्म आदि है अथवा अनादि है । तत्त्वार्थसूत्र की दृष्टि से देखे तो वहाँ द्रव्य के लक्षण में कहा