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Vol. xxVII, 2004
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्म-मीमांसा
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सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्ट विडंबियं ।
सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥१४.१३॥
सर्व प्रकार का गायन विलाप है । सर्व नाट्य विडंबना हैं, अलंकार भार है और सभी कामभोग दुःखावह हैं । जो सुख शीलाचरण में है, वह कामभोगों में नहीं । कामभोग क्षणिक सुखदायी, अनन्त दुःखदायी, मोक्षमार्ग में बाधक और अनर्थों की खान है।८ संसारबंधन करानेवाले कामभोग गृद्ध के समान हैं, इन उल्लेखों से कामभोगों का बंधकत्व दिखाई देता है ।१९ मोह :
मोह शब्द 'मुह' (मूच्छित करना) धातु से बना है। किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा होते ही मनुष्य मूच्छित व्यक्ति के समान अविवेकी होकर उस वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है । मोह रागभावना का ही एक विशिष्ट आविष्कार है। मोह से बंध का हेतुत्व भी उत्तराध्ययन में अनेक जगह दिखाई देता है। अनन्तमोह के कारण प्रमत्त जीव मोक्ष की इच्छा रखते हुए भी मोक्षमार्ग नहीं देख सकता २° शोक और मोह का संबंध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि, शोकाग्नि मोहरूपी वायु से प्रज्वलित होती है। मोह का जन्मस्थान तृष्णा और तृष्णा का मोह है, इस प्रकार चक्राकार संबंध है। इसी प्रकार का संबंध मोह-दुःख-तृष्णा और लोभ के बारे में बताया गया है ।२९ वीतरागता से जीव स्नेह व तृष्णा के अनुबन्ध का विच्छेद करता है । इस प्रकार के अन्य अनेक विधानों से मोह और तृष्णा का बन्धहेतुत्व स्पष्ट होता है।२२ ५) योग :
योग शब्द में धातु का मूल अर्थ जोडना, एकत्रित करना है। मन, वचन और काय की सर्व प्रवृत्तियों को योग कहा गया है । पातञ्जलयोग दर्शन में 'चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है । जैन दर्शनानुसार क्रमशः सर्व योगों का निरोध मोक्ष की ओर ले जाता है। कर्म अर्थात् शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक कर्म, ये कर्मबंध के हेतु हैं । योगसत्य से जीव योगविशुद्धि को प्राप्त करता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद जीव योगनिरोध में प्रवृत्त होता है और कम से मन, वचन और खानपान निरोध करता
२) बन्ध :
जो जीवों को संसारबंधन में बाँध लेता है, वह बंध है। जीवों को होनेवाले कर्मबंध को उत्तराध्ययन में नवतत्त्वों में समाविष्ट किया गया है। प्रथम सीढी बन्ध और अन्तिम मोक्ष है । इषुकारीय अध्ययन में पुरोहितपुत्र कहते हैं, "आत्मा के आन्तरिक रागादि हेतु ही निश्चित रूप से बंध के कारण हैं, और बंध संसार का कारण है ।" २४ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित हैं । वे उत्तराध्ययन में निम्नप्रकार से दिखाई देते हैं-अनुप्रेक्षाओं के योग से जीव आयुः कर्म छोडकर शेष सात ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों के प्रगाढ बंधन को शिथिल करता है और उनकी दीर्घकालीन स्थिति को