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कमलकुमार जैन
SAMBODHI
३. प्रमाद :
कर्तव्य में अप्रवृत्ति और अकर्तव्य में प्रवृत्ति अर्थात् असावधानता प्रमाद है । प्रमाद आश्रव का प्रमुख द्वार होने से महावीर ने गौतम को बार बार कहा कि, हे गौतम, तुम क्षणभर के लिये भी प्रमाद मत करो। योग्य अध्यात्मज्ञान प्राप्त न होने का प्रमुख कारण प्रमाद है । मृत्यु का निरंतर स्मरण करने से प्रमाद नहीं होगा, ऐसा विश्वास व्यक्त किया गया है । व्रतों को स्वीकार करने के बाद प्रमाद के कारण उनके पालन में बाधा आ सकती है । ११
४. कषाय :
'कषाय' शब्द उत्तराध्ययन
चार बार आया है । मृगापुत्र ने गारव, कषाय, निदान इत्यादि से मुक्त होकर श्रामण्य का पालन किया । कषाय और इंद्रियाँ आत्मा की शत्रु हैं। एक जगह कषायों को अग्नि की और श्रुत, शील, तप को पानी की उपमा दी गई है। जो भिक्षु विकथा, कषाय, संज्ञा, आर्त व रौद्रध्यान का त्याग करता है, वह संसार परिभ्रमण नहीं करता । कषाय प्रत्याख्यान से जीव वीतरागता प्राप्त करता है । १२
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इंद्रिय और कषायों को जीतना कठिन है । कषाय सुगति में बाधक होती हैं । जिस ब्राह्मण में क्रोध, मान, हिंसा, असत्य, चोरी व परिग्रह विद्यमान हैं, वह पापक्षेत्र है । इनसे जो रहित होता है, वही ब्राह्मण कहलाता है । पद्मलेश्या में परिणतभाव वाले जीवों के कषाय अत्यंत अल्प होते हैं । इस निर्देश से संज्वलन कषाय की सूचना मिलती है । १३
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राग-द्वेष
सर्व मानवीय भावनाओं का वर्गीकरण जैनदर्शन में दो भागों में विभाजित है । सुखद परिणामों के कारण जिसके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है, उन सबका समावेश 'राग' शब्द में होता है । दुःखद परिणामों के कारण जो अच्छा नहीं लगता, उसका समावेश 'द्वेष' भावना में होता है। राग-द्वेषरहित स्थिति स्पृहणीय कही गई है । स्त्री - कथा राग और कामभावना बढाती है । विचक्षण भिक्षु रागद्वेष और मोह को छोडकर मेरु के समान अकम्पित रहता है ।१४ गौतम गणधर ने तीव्र राग-द्वेष व स्नेहरूपी दृढपाश को भयंकर बंधन . की संज्ञा दी है । १५ रागद्वेष को कर्मों का प्रवर्तक कहा गया है । १६ इस प्रकार के अनेक उपदेशप्रद - पदों द्वारा राग-द्वेष का बन्धहेतुत्व स्पष्ट होता है । प्रमादस्थानीय अध्ययन में विवेचित राग-द्वेष संबंधी कथन महत्त्वपूर्ण हैं ।
कामभोग :
कामभोगों की आसक्ति के कारण जीव कूर से क्रूर कर्म करता है । भयंकर हिंसा भी करता है । कामभोगों के दुःखद परिणामों को जाननेवाला साधु उनमें लिप्त नहीं होता है। काम भोगासक्त जीव असुरकाय योनि में उत्पन्न होते हैं । कामभोगो को शल्य तथा आशीविष कहा गया है ।१७ कामभोग संबंधी उत्तराध्ययन का उत्कृष्ट दृष्टिकोण निम्निलिखित गाथा से स्पष्ट होता है ।