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________________ Vol. XXVII, 2004 उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्म-मीमांसा वेदनीय इत्यादि कर्मों का क्षय करता है । इस बात से चार अघातिया कर्मों की सूचना मिलती है, तो चारित्रसम्पन्नता से जीव केवलिसत्कर्मों का क्षय करता है। इससे चार घातिया कर्मों को सूचित किया गया है । 71 उत्तराध्ययन में कर्मसिद्धांत का क्रमबद्ध पद्धति से सूक्ष्मविवेचन तो नहीं किया गया, परंतु ग्रंथ का अध्ययन करने पर पता चलता है कि, संपूर्ण ग्रंथ में कर्मविषयक सुसंबद्ध विवेचन प्राप्त होता है । दार्शनिक दृष्टि से भव्य जीवों की आध्यात्मिक यात्रा कर्मबन्ध और कर्मों से छूटकारा इन दो शिखरों के बीच अनेक घाटियों के रूप में विकसित हुई है। इसी कारण बंध, बंध के कारण अर्थात् आस्रव, संवर, संवर के उपाय, निर्जरा, निर्जरा के साधन एवं मोक्ष इन सब विचारों की एक श्रृंखला तैयार होती है । कर्मों का अस्तित्व. अनादि है और जीव के संबंध में कर्म पाप-पुण्य, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों के रूप में कार्यरत रहते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्मविषयक उल्लेखों को एकत्रित किया जाय तो वे निम्नलिखित रूप में प्राप्त होते हैं 1 (१) कर्मबंध के कारण : जैन दर्शन में शारीरिक, मानसिक और वाचिक ये तीन क्रियाएँ बताई गई हैं । इन्हें योग कहा जाता है । इनमें से जब, कोई भी क्रिया जीव के द्वारा होती है, तब जीव के द्वारा कर्म होता है। अर्थात् कर्मबंध का आरंभ होता है। आश्रवद्वारों से ( कर्मबंध के हेतु) कर्म आत्मप्रदेशों में प्रवेश करते हैं । वे आश्रव द्वार पाँच हैं - १. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, व ५. योग । 'चतुरंगीय' अध्ययन में 'कम्मुणो हेऊ' पद के द्वारा कर्मबंध के हेतु का निर्देश किया है, परंतु कर्मबंध के विशिष्ट पाँच हेतु स्पष्ट नहीं बताये गए हैं। उनके क्षय से जीव मोक्ष प्राप्त करता है । उस उल्लेख से बंध के पाँच हेतुओं का निर्देश स्पष्ट होता है । (१) मिथ्यात्व : जीव, अजीव आदि तत्त्वों पर भावपूर्वक श्रद्धा न रखना मिथ्यात्व है । मिथ्यात्वी जीव प्रमादी होते हैं । इसलिए गौतम को प्रमाद को प्रमाद से दूर रहने को कहा गया है। मिथ्यात्वी जीव सम्यक्दर्शन का विराधक होता है और मिथ्यात्व संसार का हेतु है । (२) अविरति : जो जीव असत्य आदि पाँच पाप क्रियाओं से निवृत्त नहीं है, उसे अविरत कहते हैं । अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रतों का जो पालन नही करता उसे 'अव्रती' कहते हैं । अविरत और अव्रती शब्दों में मूल रूप से भेद होने पर भी कालांतर में ये शब्द अर्थदृष्टि से एकरूप हो गये। जो जीव पाँच आश्रवों में प्रवृत्त, षट्जीवनिकायों में अविरत है और 'अजितेंद्रिय' है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता है । उसी प्रकार जो जीव आरंभ से अविरत है, शुद्र व दुःसाहसी है, वह नील लेश्या भावरूप परिणत होता है । १० 4
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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