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Vol. xxVII, 2004
प्राचीन जैनागमों में चार्वाकदर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा
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ही यह जीव जीवित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए शरीर के अस्तित्व पर्यन्त ही जीवन का अस्तित्व हैं । इस सिद्धान्त को युक्ति-युक्त समझना चाहिए । क्योंकि जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि शरीर अन्य है और जीव अन्य है वे जीव और शरीर को पृथक्पृथक् करके नहीं दिखा सकते । वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या हुस्व है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है, अतः जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत युक्तिसंगत हैं ।" क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की तरह पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा
१. तलवार और म्यान की तरह . २. मुंज और इंषिका की तरह ३. मांस और हड्डी की तरह ४. हथेली और आंवले की तरह ५. दही और मक्खन की तरह ६. तिल की खली और तेल की तरह ७. ईख और उसके छिलके की तरह ८. अरणि की लकड़ी और आग की तरह
इस प्रकार जैनागमों में प्रस्तुत ग्रन्थ में ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है । पुनः उनकी देहात्मवादी मान्यता के आधार पर उनकी नीति संबंधी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया गया है
यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं है । इसी प्रकार क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, भला-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं हैं । अतः प्राणियों के वध करने, भूमि को खोदनें, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन पकाने आदि क्रियाओं में भी पाप नहीं
का तरह
- प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की युक्ति-युक्त समीक्षा न करके मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है ऐसा प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में फँस जाते
इसी अध्याय में पुनः पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत और छठा आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि इस जगत में पंचमहाभूत ही सबकुछ हैं । जिनसे अर्थात् पंचमहाभूतों में हमारी क्रिया-अक्रिया, सुकृतदुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति; अधिक कहाँ तक कहें तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी होती हैं, क्योकि आत्मा तो अकर्ता है।