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सागरमल जैन
SAMBODHI
उस भूतसमयाय (समूह) को पृथक्-पृथक् नाम से जानना चाहिए जैसे कि-पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभूत है। ये पाँच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित नहीं हैं। और नहीं ये किसी कर्ता द्वारा बनाये हुए हैं, ये किये हुए भी नहीं हैं, न ही ये कृत्रिम हैं और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं। ये पाँचो महाभूत आदि एवं अन्त रहिते हैं तथा अवध्य और आवश्यक कार्य करने वाले हैं । इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत नित्य हैं । यह ज्ञातव्य है कि जैनागमों में ऐसा कोई भी सन्दर्भ उपलब्ध नहीं होता है कि जिसमें मात्र चार महाभूत (आकाश को छोड़कर) मानने वाले चार्वाकों का उल्लेख हुआ हो ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचमहाभूतवादियों के उपर्युक्त विचारों के साथ-साथ पंचमहाभूत और छठा आत्मा ऐसे छः तत्त्वों को मानने वाले विचारकों का भी उल्लेख हुआ है।
इनकी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा गया हे कि सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं होती। इतना ही जीवकाय है, इतना ही अस्तिकाय है और इतना ही समग्र लोक हैं । पंचमहाभूत ही लोक का कारणे हैं । संसार में तृण-कम्पन से लेकर जो कुछ होता है वह सब इन पाँच महाभूतों से होता है । आत्मा के असत् अथवा अकर्ता होने से हिंसा आदि कार्यों में पुरुष दोष का भागी नहीं होता, क्योंकि सभी कार्य भूतों के हैं सम्भवतः यह विचारधारा सांख्य दर्शन का पूर्ववर्ती रूप हैं । इसमें पंचमहाभतवादियों की दृष्टि से आत्मा को असत माना गया है तथा पंचमहाभत एवं षष्ठ आत्मा को मानने वालों की दृष्टि से आत्मा को अकर्ता कहा गया है। सूत्रकृतांग इनके अतिरिक्त ईश्वरकारणवादी और नियतिवादी जीवनदृष्टियों को भी कर्मसिद्धान्त का विरोधी होने के कारण मिथ्यात्व का प्रतिपादक ही मानता हैं । इस प्रकार ऋषिभाषित के देशोत्कल को सूत्रकृतांग के पंचमहाभूत एवं षष्ठ आत्मवादियों के उपरोक्त विवरण में पर्याप्त रूप से निकटता देखी जा सकती हैं । जैनो की मान्यता यह थी कि वे सभी विचारक मिथ्यादृष्टि हैं, जिनकी दार्शनिक मान्यताओं में धर्माधर्मव्यवस्था या कर्मसिद्धान्त की अवधारणा स्पष्ट नहीं होती । हम यहाँ यह देखते हैं कि इन दार्शनिक मान्यताओं में देह-आत्मवाद की स्थापना करते हुए देह
और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, इस मान्यता का तार्किक रूप से निरसन किया गया है, किन्तु यह मान्यता क्यों समुचित नहीं है ? इस संबंध में स्पष्ट रूप से कोई भी तर्क नहीं दिये गये हैं। सूत्रकृतांग देहात्मवाद के समर्थन में तो तर्क देता है किन्तु उसके निरसन में कोई तर्क नहीं देता हैं । यहाँ हमने आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन की अपेक्षा से चार्वाक दर्शन की चर्चा की है । ऋषिभाषित और राजप्रश्नीय की अपेक्षा से चार्वाकदर्शन की समीक्षा निम्नानुसार है । ऋषिभाषित में प्रस्तुत चार्वाकदर्शन . प्राचीन जैन आगमों में चार्वाकदर्शन की तार्किक प्रतिस्थापना और तार्किक समीक्षा हमें सर्वप्रथम ऋषिभाषित (ई. पू. चौथी शती) में ही मिलती है। उसके पश्चात् सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध (ई. पू. प्रथम शती) में तथा राजप्रश्नीय (ई. पू. प्रथम शती) में मिलती है । ऋषिभाषित का बीसवाँ "उक्कल"