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सागरमल जैन
SAMBODHI सम्भवत: उत्तराध्ययन में चार्वाकों के असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने वाले उदाहरण इसीलिये दिये गये होंगे, ताकि इनकी समालोचना सरलतापूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं माना गया है और अमूर्त होने से नित्य कहा गया है ।१३ उपर्युक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी मिलती है- . १. चार्वाकदर्शन को "लोकसंज्ञा" और "जनश्रद्धा" के नाम से अभिहित किया जाता था । २. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था, अपितु पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति
बताता था । ३. कारणतावाद में वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता
था । ४. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार करता था तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को
अस्वीकार करता था । पुनर्जन्म की अस्वीकृति के साथ-साथ वह परलोक अर्थात् स्वर्ग-नरक की
सत्ता को भी अस्वीकार करता था । ५. वह पुण्य-पाप अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों को भी अस्वीकार करता था, अत:
कर्मसिद्धान्त का विरोधी था । ६. उस युग में दार्शनिकों का एक वर्ग अक्रियावाद का समर्थक था । जैनों के अनुसार अक्रियावादी
वे दार्शनिक थे, जो आत्मा को अकर्ता और कूटस्थनित्य मानते थे । आत्मवादी होकर भी शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल (कर्मसिद्धान्त) के निषेधक होने से ये प्रच्छन्न चार्वाकी ही थे।
इस प्रकार आचारांग, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन के जो उल्लेख हमे उपलब्ध होते है, वे मात्र उसकी अवधारणाओं को संक्षेप में प्रस्तु करते हैं । उनमें इस दर्शन की मान्यताओं से साधक को विमुख करने के लिए इतना तो अवश्य कहा गया है कि यह विचारधारा समीचीन नहीं है, किन्तु इन ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण और निरसन दोनों ही न तो तार्किक है और न विस्तृत ही। सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा :
चार्वाकों अथवा तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का तार्किक दृष्टि से प्रस्तुतीकरण और उसकी तार्किक समीक्षा का प्रयत्न जैन आगम साहित्य में सर्व प्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय पौण्डरिक नामक अध्ययन में और उनके पश्चात्, राजप्रश्नीय सूत्र में उपलब्ध होता हैं । अब हम सत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आधार पर तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का प्रस्तुतीकरण करेंगे और उसकी समीक्षा प्रस्तुत करेंगे ।
तज्जीवतच्छरीरवादी यह प्रतिवपादित करते हैं कि "पादतल से ऊपर मस्तक के केशों के अग्र भाग से नीचे तक तथा समस्त त्वक्पर्यन्त जो शरीर है वही जीव हैं । इस शरीर के जीवित रहने तक