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Vol. xxVII, 2004 प्राचीन जैनागमों में चार्वाकदर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा 61 (परिवर्तनशील) मानना क्रियावाद हैं । इसी प्रकार आचारांग में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाकदर्शन का निर्देश लोकसंज्ञा के रूप में हुआ हैं । लोकसंज्ञा से ही लोकायत नामकरण हुआ होगा । यद्यपि इस ग्रन्थ में इन मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई
सूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन :
आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी विद्वनों ने अतिप्राचीन (लगभग ई. पू. चौथी शती) माना है। सूत्रकृतांग के प्रथम अध्याय में इमें चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गाय है कि पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और आकाश ऐसे पाँच महाभूत माने गये हैं। उन पाँच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है। साथ ही यह भी बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित प्रत्येक की अपनी आत्मा होती है जो मृत्यु के बाद नहीं रहती। प्राणी औपपातिक अर्थात पनर्जन्म ग्रहण करने वाले नहीं है। शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् आत्मा का भी नाश हो जाता है । इस लोक से परे न तो कोई लोक है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में चार्वाकदर्शन की मान्यताओं का उल्लेख तो मिलता है किन्तु यहाँ भी उनकी कोई स्पष्ट तार्किक समालोचना परिलक्षित नहीं होती हैं । यद्यपि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाकदर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किन्दु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना हैं । अत: उसके पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे । उत्तराध्ययन में लोकायतदर्शन :
उत्तराध्ययन में चार्वाक दर्शन को जन-श्रद्धा (जन-सिद्धि) कहा गया हैं । सम्भवतः लोकसंज्ञा और जनश्रद्धा ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं । उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं । परलोक को तो हमने देखा ही नहीं । वर्तमान के कामभोग हस्तगत हैं जबकि भविष्य में मिलने वाले (स्वर्ग-सुख) अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं? इसलिए मैं तो जनश्रद्धा के साथ होकर रहूँगा । इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में चार्वाकों की पुनर्जन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन किया गया हैं । इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति का एवं पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, जो वस्तुतः असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है । यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता हैं । उसमें कहा गया है कि जैसेअरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है।१२