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सागरमल जैन
SAMBODHI
था कि राजा की भौतिकवादी जीवन-दृष्टि को परिवर्तित किया जा सके । कथावस्तु की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा तार्किकता की दृष्टि से ही इसे भी प्रस्तुत विवेचन में समाहित किया गया हैं ।
प्रस्तुत विवेचना में मुख्यरूप से चार्वाक दर्शन के तज्जीवतच्छरीरवाद एवं उसकी परलोक तथा पुण्य-पाप की अवदारणाओं का पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ समीक्षाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं । इनमें भी ऋषिभाषित (ई. पू. चौथी शती) में चार्वाकों की जीवनदृष्टि का जो प्रस्तुतीकरण है, वह उपर्युक्त विवरण से कुछ विशिष्ट प्रकार का हैं । उसमे दण्डोक्कल, रज्जूक्कल, स्तेनोक्कल, देसोक्कल, सव्वोक्कल के नाम से इनके जिन पाँच प्रकारों का उल्लेख है, वह भी अन्यत्र किसी भी भारतीय दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं राजप्रश्नीय में चार्वाकदर्शन की स्थापना और खण्डन, दोनों के लिए जो तर्क प्रस्तुत किये गये है वे भी महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त प्राकृत आगमिक-व्याख्या साहित्य में मुख्यतः विशेषावश्यकभाष्य (छठवीं शती) के गणधरवाद' में चार्वाक दर्शन की विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा-महावीर और गौतम आदि ११ गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है, वह भी दार्शनिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण कही जा सकती हैं । अन्य आगमिक संस्कृत टीकाओं (१०वीं-११वीं शती) में बी चार्वाकदर्शन की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं में दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हैं । चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवनदृष्टि की समीक्षाएँ उपलब्ध हैं। किन्तु इन सबको तो किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में ही समेट जा सकता हैं । अतः इस निबंध की सीमा-मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे। आचारांग में लोक संज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश :
जैन आगमों में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन माना जाता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में स्वयं महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकाल चौथी-पाँचवीं शताव्दी ई. पू. माना जाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन का उल्लेख तो नहीं है, किन्तु इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही लोकायत दर्शन की पुनर्जन्म का निषेध करने वाली अवधारणा की समीक्षा की गई हैं। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता है कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली) हैं। मैं कहाँ से आया हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करुंगा? सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए की मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली) है, जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और मैं भी ऐसा ही हँ. वस्ततः जो यह जानता है-वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी हैं । इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही चार्वाकदर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध चार बातों की स्थापना की गई है-आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद
और क्रियावाद । आत्मा की स्वतंत्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद हैं । संसार को यथार्थ मानकर आत्मा को लोक में जन्म-मरण करने वाला समझना लोकवाद हैं । शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फलों में विश्वास करना कर्मवाद हैं । आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता-भोक्ता एवं परिणामी