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Vol. xxVI, 2003
कर्मबंध और उसके कारण
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(२) प्रदेशबंध : इसी तरह आठों कर्म अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं । इन कर्म परमाणुओं की संख्या निश्चित होने से इन्हें प्रदेशबंध कहते हैं ।
(३) स्थितिबंध : प्रत्येक कर्म की अपनी-अपनी स्थिति होती है । कुछ कर्म क्षणिक होते हैं तो कुछ अनंत जन्मों तक आत्मा के साथ चिपके रहते हैं । इस कालमर्यादा को ही स्थिति बंध कहते हैं जैसे किसी वस्तु विशेष, जैसे दूध आदि के स्वाद की एक निश्चित अवधि होती है । पश्चात यह विकृत हो जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक कर्म का स्वभाव एक निश्चित काल तक रहता है। यह मर्यादा ही स्थितिबंध है। जिसका निर्धारण जीव के भावों के अनुसार कर्म बंधता समय ही हो जाता है ।
(४) अनुभागबंध : कर्मो की फलदान शक्ति को अनुभाग कहते हैं । भावार्थ यह कि प्रत्येक कर्म की फलदान शक्ति अपने-अपने स्वभाव के अनुरुप होती है । इसमें तर-तमता रहती है। अपनेअपने स्वभाव के अनुरुप कर्म आ तो जाते हैं किन्तु उनमें तर-तमता अनुभाग बंध के कारण ही आती है। जैसे गन्ने में मीठापन तो है, पर यह उसमें रहनेवाली मीठास पर आधारित है। इसके अन्तर्गत तरतमता का आधार शुभाशुभ भाव है । मंद कषाय होने पर कम दुःख होगा और तीव्र कषाय होने पर उसमें तीव्रता होगी । ये तीव्र कषाय ही आत्मा का विशेष घात करते हैं, जो जन्म जन्मान्तर तक आत्मा को विभिन्न गतिथों में भटकाते रहते हैं ।
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