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________________ कर्म का भौतिक स्वरूप महावीर राज गेलड़ा १. इस जगत में व्यापक रूप से दिखाई देने वाली भिन्नता का क्या कारण है ? अप्रत्यक्ष कारण की खोज में दर्शन जगत में काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर, कर्म आदि सिद्धांतो का अविर्भाव हुआ । जैन दर्शन ने जीव और जगत के वैविध्य का कारण कर्म को स्वीकार लिया। भगवती सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं जीव कर्म के द्वारा विभक्ति भाव अर्थात् विभिन्नता को प्राप्त होता हैं । आचारंग सूत्र में आत्मवाद की स्वीकृति के साथ ही कर्मवाद, लोकवाद, क्रियावाद को भी स्वीकार किया गया । कर्म की अवधारणा, भारतीय चिन्तन में व्याप्त है लेकिन प्रत्येक दर्शन ने कर्म की परिभाषा अलग अलग दी है। मीमांसक परम्परा में यज्ञ-यागादि, नित्य नैमितिक क्रियाओं को, गीता में कायिक आदि प्रवृत्तिओं को, योग एवं वेदान्त में कर्म के साथ क्रियात्मक अर्थ को भी कर्म ही माना है । जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा हैं : 'आत्मन् प्रवृत्या कृष्टास्त-प्रायोग्यपुदगलाः कर्म' आत्मा से प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ठ एवं कर्म रूप में परिणत होने योग्य पुदगलों को कर्म कहा हैं । अतः कर्म पुद्गल है। पुद्गल को भौतिक पदार्थ कहा जा सकता है । जैन दृष्टि से पुद्गल के अनेक गुणों में 'स्पर्श' एक महत्त्वपूर्ण गुण है। स्पर्श के आधार से पुद्गलों से सूक्ष्म और स्थूल कहा गया है । सूक्ष्म पुद्गल वे हैं जो चतुः स्पर्शी है अर्थात् शीत-उष्ण और स्निग्ध-रूक्ष ये चार स्पर्श वाले हैं । कर्म भी सूक्ष्म पुद्गल हैं अतः वे भी चतुः स्पर्शी हैं । सूक्ष्म पुद्गल जब संयोग से स्थूल पुद्गल बनते हैं तो उनमें चार नये, द्वितीयक स्पर्श उत्पन्न हो जाते हैं - वे स्पर्श है - गुरु-लघु तथा मृदु-कर्कश । ध्यान देने योग्य बात यह है कि कर्म के - चतुःस्पर्शी पुद्गलो में गुरु-लघु स्पर्श नहीं है अर्थात् वे हल्केभारी नहीं है। यह स्थूल और सूक्ष्म पुद्गल के बीच की महत्त्वपूर्ण भेद रेखा है । विज्ञान के अनुसार ऐसे कण ग्लुओन ग्रेविटोन और फोटोन हो सकते हैं। २. अन्य भारतीय दर्शनों की तुलना में जैन दर्शन ने कर्मो की भौतिक-मीमांसा कर अपनी विशेष प्रतिष्ठा अर्जित की है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब वैज्ञानिको को सूक्ष्म कणों का पता लगा था, उन्होनें कहा था कि अब इस सृष्टि के मूल को समझना कठिन नहीं होगा लेकिन ऐसा न हो सका । क्योंकि इसके बाद इलेक्ट्रोन, प्रोटोन के अतिरिक्त इस प्रकृति में अनेक सूक्ष्म कणों का होना पाया गया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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