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शेखरचन्द्र जैन
उसे पाप कर्म का बंध कराता है ।
(४) कषाय : कषाय अर्थात् 'कसना' । वास्तव में संसार की वृद्धि करनेवाले तत्त्व ही कषाय । अनन्त योनियों में जन्म-मरण की वेदना को करानेवाले ये कषाय ही हैं। वास्तव में देखा जाए तो आत्मा को कलुषित करने वाले ये कषाय ही हैं। इन क्रोध, मान, माया और लोभ चारों के कारण मनुष्य रागद्वेष के भावों से लिप्त रहता है और समस्त अनर्थों के यही मूल हैं। आचार्यों ने कहा है कि 'कषाय एक ऐसा कृषक है जो चारों गतियों की मेढ़ वाले कर्म रूपी खेत को जोतकर सुख-दुख रूपी अनेक प्रकार का धान उत्पन्न करता है । आचार्य वीरसेन स्वामीने लिखा है कि जो दुःख रूप धान्य को पैदा करनेवाले कर्मरूपी खेत को कर्षण करते हैं, जीतते हैं, फलवान करते हैं, वे क्रोध मानादिक कषाय हैं ।' कषाय के अन्तर्गत चार कषाय के सोलह भेद इस जीव को मिथ्यात्व में भटकाता है और बंध कराता है ।
SAMBODHI
(५) योग : योग से भाव है मन, वचन, काय से होनेवाली क्रिया जिसका वर्णन पीछे कर
चुके हैं।
योग का अर्थ है - मन, वचन और काया के कारण आत्मप्रदेश में होनेवाला स्पंदन | चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग यह पन्द्रह योग बंध के कारण बने रहते हैं ।
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उपरोक्त विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि कर्म किन मार्गों से, किन अवस्थाओं में आत्मा के साथ जुड़ते हैं । कषाय आदि भाव कर्म के आश्रित हैं और उनका आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक रूप हो जाना कर्मों का बंध कहलाता है जैसे दूध और जल मिलकर एकमेक हो जाते हैं, वैसे ही ये घुलमिल जाते हैं । जब आत्मा के साथ कर्म बंधते हैं या संयोग करते हैं तब उनमें एक विजातीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है जैसे ओक्सीजन और हाइड्रोजन रूप दो गैसों के मिश्रण से जल नामक पदार्थ नया रूप धारण करता है । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के बंध से एक विजातीय अवस्था उत्पन्न होती है । यह बंध अवस्था तभी पुनः अलग की जा सकती है जब पुनः प्रयोग से गुजरा जाए। वैसे ही कर्म के कारण यह अशुद्ध आत्मा भी तप के द्वारा कर्मों को जलाने के पश्चात् ही शुद्ध हो सकती है ।
आचार्यों ने कर्म के इस बंध के कारणों में कषायों की तीव्रता और मंदता को माना है। जिन रागद्वेष के कारण कर्मों का बंध होता है, वह भावबंध कहलाता है और कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ एकाकार हो जाना द्रव्यबंध है । इस बंध होने के मूलतः चार कारण माने गये हैं
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(१) प्रकृतिबंध (२) प्रदेशबंध (३) स्थितिबंध (४) अनुभागबंध
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( १ ) प्रकृतिबंध : प्रत्येक कर्म का अपना एक स्वभाव होता है जैसे प्रत्येक पदार्थ का अपना स्वभाव होता है | नीम का स्वभाव कड़वा है, तो गुड़ का स्वभाव मीठा है। वैसे ही प्रत्येक कर्म का अपना स्वभाव होता है जो कर्म के मूल रूप को प्रभावित करते है - जैसे ज्ञानवरणी कर्म ज्ञान प्रकट नहीं होने देते या दर्शनावर्णी कर्म सत्य को जानने देखने में बाधा उत्पन्न करते । दर्शन मोहनीय कर्म तत्त्व मे श्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देते, तो चारित्र्य मोहनीय के कारण असंयम उत्पन्न होता है ।
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