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________________ शेखरचन्द्र जैन SAMBODHI इस चर्चा से इतना स्पष्ट होता है कि कर्म के आगमन का मूल स्रोत राग-द्वेष भाव हैं । आचार्यों ने इसे इस प्रकार कहा है - जैसे छोटी-छोटी नालियों से बहता हुआ जल जलाशय में प्रविष्ट होकर उसे भर देता है, वैसे ही यह कर्म प्रवाह जल आस्रव द्वार से प्रवेश करता है । जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्तियों के निमित्त से कर्माणवर्गणाएँ जीव की ओर आकृष्ट होकर कर्म रूप में परिणत हो जाती हैं और जीव के साथ उनका संबंध हो जाता है । तत्वार्थ सूत्र में उमास्वामी ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जीवात्मा में मन, वचन और शरीर रूपी तीन ऐसी शक्तियाँ हैं, जिससे प्रत्येक संसारिक प्राणी में प्रतिसमय एक विशेष प्रकार का परिस्पंदन होता है। इसके कारण जीव के प्रत्येक प्रदेश-सागर में उटनेवाली लहरों की तरह तरंगायित रहते हैं । कर्मबंधन का भाव ही आस्रव भाव है। आस्रव का अर्थ ही होता है आना । इस दृष्टि से कर्मो के आगमन को आस्रव कहते हैं । सम्पूर्ण लोक में चारों ओर कर्म तो ठसाठस भरे हुए हैं, वे कहीं बाहर से नहीं आते हैं, पर जैसे ही मन और इन्द्रियों के कारण राग-द्वेष पनपते हैं, तो तुरन्त वे कर्म ठीक वैसे ही आत्मा पर आक्रमण करते हैं - जैसे घर का खुला ताला देखकर एकान्त पाते ही चोर आक्रमण करते हैं । यह आक्रमण ही आस्रव या कर्मो का आगमन है। जिन भावों' से कर्म आते हैं, उन्हे भावस्रव कहते हैं और कर्मों का आगमन द्रव्यास्रव कहलाता है। आचार्यों में कर्म के इस आस्रव को साम्पयिक और इर्यापथ दो भेदों वाला कहा है । क्रोधादिक विकारों के साथ होनेवाला आस्रव साम्परायिक आस्रव कहलाता है, जो आत्मा के साथ चिरकाल तक टिता रहता है, जबकि इर्यापथ आस्रव ऐसा आस्रव है, जहाँ कर्म आते ही शीघ्र झड़ जाते हैं । इसमें कषायों का अभाव रहता है । आस्रव के कारण आचार्यों ने यह माना है कि आत्मा के साथ कर्मों का जुड़ना या बंध होना अनादिफल से चला आ रहा है। निश्चय की दृष्टि से प्रत्येक जीव शुद्ध, निर्मल, निरंजन है, जो अनंत दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गुणों का अखण्ड पिण्ड है, राग-द्वेष से रहित है । वह आकाश की तरह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, भार एवं परिस्पंद से रहित है लेकिन वह द्रव्य कर्म, भावकर्म और नोकर्म से आबद्ध होने के कारण व्यवहार नय से मूर्तिक है। आचार्य देवसेनने अपने ग्रंथ 'आलाप पद्धति' में कहा है कि आत्मा को सर्वथा अमूर्तिक मानने से संसार का लोप हो जायेगा । द्रव्य कर्म आदि के बंध के अभाव से यदि संसारी आत्मा को सर्वथा अमूर्तिक माना जाए तब कर्म का अभाव रहने से संसार का ही अभाव हो जायेगा। प्रत्येक जीव शुद्धबुद्ध निरंजन स्वरूप हो जायेगा लेकिन ऐसा नहीं है । यदि सभी जीव अमूर्तिक हो जाते तो एकइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव दिखाई तक नहीं देते । यदि कर्म के बंध का अभाव मान किया जाए तो संसार का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का अभाव भी हो जायेगा । यह अभाव प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, तर्क और वस्तुस्वरूप के विरुद्ध है । अतः संसारी जीव को व्यवहारनय की अपेक्षा कर्म संबंध से मूर्तिक मानना प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, तर्क, अनुभव और वस्तु स्वरूप के अनुरूप है । जीव के साथ कर्म बंध होने के लिए पुद्गल के बंध योग्य गुणों के साथ साथ जीव में भी बंध होने योग्य गुणों की आवश्यकता अनिवार्य है। प्रत्येक कार्य उपादान और निमित्त अर्थात् मुख्य और गौण कारण से ही होता है और यह परम्परा से प्रचलित है । इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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