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________________ Vol. XXVI, 2003 कर्मबंध और उसके कारण 87 भव के निमित्त से कर्म के फल देने में विविधता होती है। अतः कर्म जो अनेक प्रकार का फल देता है उस फल देने का नाम ही अनुभाग है । प्रत्येक कर्म की अपनी-अपनी तीव्र या मंद फलदान शक्ति रहती है। यह उसके अनुभाग की तर-तमता पर स्थित है । तरतमता का आधार हमारे शुभाशुभ भाव पर निर्भर है। यदि कषाय मंद है तो अल्प सुख-दुःख होता है और यदि अनुभाग में तीव्रता होगी तो सुखदुःख में तीव्रता होगी। यह जीव अनादि काल से ऐसे ही कर्मों में भटक कर दुःखी होता है । . विरक्त नहीं होना, यह अविरति है । अविरति का अपरनाम असंयम भी है । क्रमश: असंयम को त्यागकर संयम की ओर बढ़ते हुए त्रसकाय के जीवों की हिंसा को त्यागते हुए पंचव्रतों का आंशिक पालन करते हुए अणुव्रती हुआ जा सकता है और इस असंयम का पूर्ण अभाव होने पर ही महाव्रत धारण किया जा सकता है। इस विवेचन से इतना स्पष्ट हो गया कि कषाय सहित होने से जीव को कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना है, वही बंध है। यह जीव कषायों द्वारा कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करके उन्हें कर्म रूप में बदल देता है यही बंध है । जैसे दीपक बत्ती द्वारा तेल को ग्रहण करके उसे अग्नि रूप में बदल देता है। उदाहरण के रूप में यह कहा जा सकता है कि जैसे खाया हुआ भोजन उदराग्नि के अनुसार खलभाग और रसभाग रूप हो जाता है वैसे ही तीव्र, मंद या मध्यम जैसी कषाय होती है उसी के अनुसार कर्मों में स्थिति और अनुभाग पड़ता है । आत्मा में स्थिति पुद्गल परमाणु योग और कषाय की दृष्टि से जो कर्मरूप हो जाते है इसी को कर्मबंध कहते हैं । - आचार्यों ने इस बंध के चार भेद कहे हैं, वे हैं (१) प्रकृति बंध (२) स्थिति बंध (३) अनुभाग बंध (४) प्रदेश बंध । प्रकृति बंध के अन्तर्गत आठ कर्मों का वर्णन कर चुके हैं । उनका समावेश होता है। प्रदेश बंध के अन्तर्गत बंधनेवाले कर्म परमाणुओं की संख्या निर्धारित होती है उसे ही प्रदेश बंध कहा गया है । स्थिति बंध का अर्थ है आस्रवित कर्म अपने स्वभावरूप से जितने समय तक आत्मारूप में जुड़े रहते हैं, उसे समय की मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं । जिस प्रकार गाय, भैंस, बकरी का दूध निश्चित कालावधि तक ही योग्य रहता है, उसके बात वह विकृत हो जाता है । उसी प्रकार प्रत्येक कर्म का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है । यह मर्यादा ही स्थिति बंध है । जिसका निर्धारण जीव के भावों के अनुसार कर्म बंधते ही हो जाता है । आत्मा से कर्म बंध का आस्रव आत्मा के साथ कर्मो का बंधना ही बंध है। प्रायः सभी आचार्यों ने एक स्वर में स्वीकार किया है कि अनादिकाल से ज्ञानादि सम्पन्न यह परमात्मा द्रव्य कर्म से पराभूत होकर संसार में दर-दर भिखारी होकर परिभ्रमण कर रहा है। संसारावस्था में भ्रमण करने का कारण भी कर्म है। जब कर्म तीव्र रागद्वेष के कारण बलवान होता है तब वह आत्मा पर अपना पूरा अधिकार कर लेता है और भव भवान्तर में भटकाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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