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शेखरचन्द्र जैन
SAMBODHI
कर्मबंध और उसके कारण हमने पिछली विवेचनाओं में यह समझा कि यह जीवन अष्ट कर्मों से बँधा होने से विविध गतियों को प्राप्त कर भटकता रहता है । जीव के शुभाशुभ परिणामों के कारण उसमें वृद्धि और हास होता रहता है । आत्मा के साथ भावों के अनुसार विविध कर्मो का आस्रव होकर बँधना बंध कहलाता है और इसके मूलतः दो भेद किये गए हैं । (१) भावबंध (२) द्रव्यबंध
बंध के कारणों में मूलतः मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच को मुख्य माना । गया है।
मिथ्यादर्शन का अर्थ है कि जिस वस्तु का जो स्वरूप है उसे उसी रूप में नहीं मानना मिथ्यादर्शन है । उदाहरण स्वरूप पुद्गल द्रव्य से बने शरीर को एवं अनंत ज्ञान, दर्शन युक्त आत्मा को एक मानना यहा मिथ्या दर्शन है। जो स्वभाव और परभाव का विवेक नहीं करता है, बाह्य पदार्थो को अपना समझकर .. ममत्व करता है, उसका दर्शन मिथ्या होता है और उन्हें कर्म का बंध होता है।
आचार्यों ने इस मिथ्यादर्शन के कारणों में अगृहीत और गृहीत दो भेद माने हैं। अगृहित मिथ्यादर्शन अनादि काल से स्वयं ही जीव को रहता है । इसमें पूर्व जन्म कृत कर्म जन्म से ही रहते हैं, जबकि गृहीत मिथ्यादर्शन दूसरों के उपदेश या बोध से होता है । यह पाँच प्रकार का होता है । (१) एकान्त (२) विपरीत (३) संशय (४) विनयिक (५) अज्ञान ।
___ हकीकत में वस्तु का स्वभाव अनेक धर्मी होता है परन्तु उसे वैसा न म मानकर एकान्तरूप या एक गुण धर्म वाली मानना, यह एकान्त मिथ्यात्व है । विपरीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत वस्तु के स्वरूप को विपरीत या पूर्णरूप से विरोधी मानने के भाव होते हैं, जैसे हिंसा में धर्म, परिग्रह में निरग्रंथता, शरीर को आत्मा, केवली के स्वरूप को अन्यथा मानना आदि इसके अन्तर्गत ही हैं। संशय मिथ्यात्व के अन्तर्गत मान्य सिद्धांतों में शंका करना और ऐसा हो भी सकता है या नहीं ऐसा संशय करना संशय मिथ्यात्व का लक्षण है । वैनयिक मिथ्यात्व का यह लक्षण है कि जब व्यक्ति सच्चे देवशास्त्र, गुरु के स्थान पर रागीसरागी सभी देवताओं, सभी धर्मों, सभी साधुओं को समान मानने लगता है । इसी तरह जब विवेक से सोचे बिना हित - अहित को समझे बिना अज्ञानवश पशुवध जैसे कार्यों में धर्म मानने लगता है तब अज्ञत्रान मिथ्यात्व के कारण कर्म का बंध करता है।
यह देखा गया है कि अनेक बार यह जीव इन गृहीत मिथ्यात्वों को छोड़ भी देता है, परन्तु जब तक यह अगृहीत अर्थात् अंतरंग मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता है, तब तक मुक्ति नहीं पाता । अगृहीत मिथ्यात्व में उसका मोहनीय कर्म प्रबल होता है । इसमें उसका एकत्व श्रद्धान, पर मो कृतित्व बुद्धि आदि प्रमुख
अविरति के अन्तर्गत छ काय के जीवों की हिंसा का त्याग नहीं करना और पाँचों इन्द्रियों तथा मन से, विषयों से कर्मों में फल देने की शक्ति को अनुभाग बंध कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और
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