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________________ Vol. XXVI, 2003 कर्मबंध और उसके कारण है ऐसा अंग है, जो उसकी इन्द्रियों को संचालित करता है । मूलतः ये कर्मेन्द्रियाँ ही विविध कार्यों की माध्यम होती हैं । सर्वप्रथम हमारा मन प्रभावित होकर अच्छे या बुरे कार्य करने को प्रवृत्त होता है और इन्द्रियाँ तद्नुसार सक्रिय हो जाती हैं । इन्द्रियों के इन्हीं व्यापारों से कर्मों का आगमन होता है। हम इसे यों समझ सकते हैं कि जैसे पानी की एक बूँद जो आकाश से जमीन पर गिरने से पूर्व परिशुद्ध अवस्था रहती परन्तु जैसे ही यह जमीन पर गिरती है, धूल आदि अनेक विकार उसे विकृत कर देते हैं । इसी प्रकार इस शुद्ध आत्मा साथ संसार के विकारी भाव इसे विकारयुक्त कर देते हैं । यह आत्मा वैसे परम शुद्ध है। इस पर राग-द्वेष आदि कारण विकारों की परतें जम गई हैं। यही कर्म का आस्रवभाव है। आचार्यों ने लिखा है कि 'जीव और कर्म का अनादि से सम्बन्ध है । इन कर्मों के कारण ही संसार की नाना योनियों में भटकता हुआ यह जीव सदा से दुःखों का भार उठाता आ रहा है।' आचार्य कुन्द - कुन्द पंचास्तिकाय में कहा है कि 'संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से कर्म बंधते हैं। कर्मों से चार गतियों में जन्म लेना पडता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है, तथा शरीर से इन्द्रियाँ होती हैं, इनमें विषयों का ग्रहण होता है तथा विषयों के ग्रहण से रागद्वेष होते हैं।' इस प्रकार संसार रूपी चक्र में भ्रमण करते हुए जीव के भावों से कर्मों का बंध तथा कर्मबंध से जीव का भाव संतति की अपेक्षा अनादि से चला आ रहा है, यह चक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है तथा भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि सांत है । - एक और उदाहरण से इसको समझेंगे। एक दीवार पर एक हिस्से में तैली पदार्थ लगा दिया जाए और दूसरा हिस्सा बिना तेल का रखा जाए। वातावरण की उडती हुई धूल जब उस दीवार से टकराती है तब जिस भाग पर तेल लगा होता है, वहाँ वह चिपक जाती है और जहाँ तेल या चिकनाहट नहीं होती वहाँ अति अल्प मात्रा में चिपकती है । यदि हवा से धूल को उड़ाया जाए तो तेलवाली दीवार से धूल नहीं हटती, विना तेलवाली जगह से वह हट जाती है । इसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन में तीव्र रागद्वेष के भाव होंगे उसकी आत्मा के साथ कर्म उतनी ही अधिक जड़ता से चिपक जायेंगे, जिसके जितने मंद कषाय होंगे उसके उतने ही कम कर्म बंध होंगे। तप आदि की हवा से मन्द कषाय के कारण बँधे हुए कर्म तुरन्त झड़ जायेंगे, जबकि तीव्र कषाय के कर्म झड़ नहीं पायेंगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा के साथ बंधने वाले कर्मों में राग-द्वेष की तीव्रता या न्यूनता का विशेष महत्त्व है । Jain Education International 85 जैनदर्शन के अनुसार लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ कर्म योग्य पुद्गल परमाणु न हों । जीव के मन, वचन और काय के निमित्त से अर्थात् जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण कर्म योग्य परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते हैं । इस प्रकार कर्मबंध के दो ही कारण माने गये हैं योग और कषाय । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं तथा क्रोधाधिक विकारों को कषाय कहतें हैं । राग-द्वेष युक्त शारीरिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्ति ही कर्मबंध का कारण हैं। वैसे तो सभी क्रियाएँ - कर्मोपार्जन का हेतु बनती हैं लेकिन जो क्रियाएँ कषाय युक्त होती हैं, उनसे होने वाला बंध बलवान होता है, जबकि कषाय रहित क्रियाओं से होनेवाला बंध निर्बल होता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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