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________________ शेखरचन्द्र जैन SAMBODHI में यह कर्म वासना स्वरूप है । विविध दर्शनों में विविध अर्थघटन किए गए हैं। जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल परमाणुओं का पिण्ड माना गया है। इनके सामान्यतः दो भेद किए गए हैं, जो पुद्गल परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं, उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं और जो शरीर रूप से परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म वर्गणा कहते हैं । इन कर्मों को जीव अपनी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से ग्रहण करता है । इसे यों कहा जा सकता है कि आत्मा साथ कर्म तभी बंधते हैं, जब मन, वचन और तद्नुरुप क्रिया होती है। इसे ही और विशेष रूप से समझाने के लिए यह कह सकते हैं कि पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड रूप कर्म को द्रव्य कर्म और राग-द्वेषादिक रूप प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहते हैं। ऐसा ही मत या विचार द्रव्य संग्रह एवं अन्य जैन ग्रंथो में अभिव्यक्त किया गया है । 84 जैन दर्शन में कर्म और आत्मा इन दो शब्दों का सर्वाधिक महत्त्व है। वस्तुतः आत्मा तो पूर्णरूपेण पवित्र अक्षर, अनंत, अव्याबाध है, परन्तु रागद्वेष के कारण जो शुभ या अशुभ भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, वे आत्मा के साथ आबद्ध होती हैं और आत्मा को विकार युक्त या राग-द्वेष-भय बना देती हैं। इसे ही आत्मा का कर्म से जुड़ना या आबद्ध होना कहा गया है । कर्म कैसे आते है ? उपर भूमिका में यह इंगित किया गया है कि राग-द्वेष आदि भाव के कारण मन, वचन, काय की क्रिया से कर्म आत्मा के साथ आबद्ध होते रहते हैं। एक और हम यह मानते हैं कि आत्मा चेतनवन्त अमूर्त पदार्थ है और दूसरी और कर्म मूर्त है फिर मूर्त और अमूर्त का सम्बन्ध कैसे हो सकता है, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं । फिर भी कर्म आत्मा पर हाबी हो जाते हैं । समयसार में आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य जी कहते हैं ' जैसे मैल के विशेष संदर्भ में अवच्छिन्न होकर वस्त्र का श्वेतपना नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व मल के विशेष संबंध से दबकर जीव का सम्यकत्व गुण नष्ट हो जाता है । जैसे मैके विशेष संबंध से दबकर वस्त्र का श्वेतपना नष्ट हो जाता है, वैसे ही कषायरूप मल से दबकर मोक्ष का हेतुभूत चरित्रा का गुण भी नष्ट हो जाता है। सम्यकत्व आत्मा का गुण है और मिथ्यात्व अज्ञान और कषाय भाव उसके विरोधी हैं । यह उदाहरण इश बात को अधिक स्पष्ट करेगा । जैसे आकाश के सूर्य को घने बादल ढक देते हैं, वैसे ही कर्म रूपी बादल आत्मा के जगमगाते सूर्य को ढक लेते हैं। जैसे शुद्ध स्फटिक मणि नितान्त धवल है लेकिन वह जिस रंग के संयोग में आता है वैसे रंग का दिखाई देने लगता है। इससे यह कहना सार्थक होगा कि शुद्ध आत्मा कर्मों के अनुसार दिखाई देने लगता है । ' आत्मा कर्म मल युक्त कैसे होता है ? हम सविशेष वे सभी प्राणी जो संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और इनमें भी विशेष रूप से मनुष्य के साथ यह कर्म भाव विशेष रूप से जुड़े हैं। हम संसारी जीव हैं। संसार में होनेवाली प्रत्येक घटना प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे साथ जुडी है । उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव भी हम पर पड़ता है । मन मनुष्य का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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