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Vol. XXVI, 2003
कर्मबंध और उसके कारण
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यह कथन इस ओर इंगित करता है कि जहाँ अन्य दर्शनों में राग-द्वेष से युक्त प्रत्येक क्रिया को कर्म मानकर उसके संस्कार को स्थायी मानते हैं, वहाँ जैन दर्शन में राग-द्वेष से युक्त जीव की मन, वचन और काया की क्रिया के साथ एक द्रव्य जीव में आता है जो उसके राग-द्वेष रूप भावों का निमित्त पाकर जीव से बंध जाता है और आगे चलकर अच्छा या बुरा फल देता है।
यह सत्य है कि कर्म या दैव को संपादन करने में जीव स्वतंत्र है, परंतु कर्म का फल भोगने में जीव स्वतंत्र नहीं है बल्कि कर्माधीन है।
कर्म संबंधी भिन्न मान्यतायें भारतीय दर्शन में वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा में पूर्वार्ध में समानता है परन्तु उत्तरार्ध में अलगअलग मान्यताएँ हैं । गीता में कर्म योगी श्री कृष्ण अर्जुन से जब यह कहते हैं कि - "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" तब वे वही कहते हैं कि तेरा अधिकार कर्म करना है, उससे उत्पन्न फलों में नहीं । इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास भी कहते हैं -
'जो जस करहि सो तस फल चाखा, होहिहै वही जो राम रचि राखा ।'
यहाँ वे पूर्वार्ध में तो कर्म की प्रधानता स्वीकार करते हैं अर्थात् जो जैसा करेगा वह वैसा फल चखेगा । परन्तु फल चखने की स्वतंत्रता उसके हाथ में नहीं मानी गई है। वहाँ तो वही होगा जो राम अर्थात् फलदायक ईश्वर को मंजूर होगा । यहाँ वैदिक हिन्दू धर्म में कर्म का एक अंश ही स्वीकार किया गया है। इससे यह कर्म भाग्य का प्रतीक बन गया है । क्योंकि कर्म करनेवाले को पता नहीं है कि उसे कौन-सा फल प्राप्त होगा। उसे तो सिर्फ कर्म करना है। ऐसे लोग कभी -कभी या तो निराशावादी हो जाते हैं या तो भाग्यवादी । जैन धर्म के कर्म के सिद्धान्त में ऐसा नहीं है, वहाँ तो यह माना जाता है कि जो जीव जैसा कर्म करता है वह तदनसार वैसा ही फल स्वयं पाता है। यहाँ कर्म का कर्ता और फल प्राप्त कर्ता स्वयं ही होता है । कोई अन्य शक्ति या ईश्वर उसके फल का दाता नहीं होता । इससे इतना स्पष्ट हुआ कि जैन धर्म में कर्म की स्वतत्र सत्ता है और कर्ता और भोक्ता जीव स्वयं है । आप्त परीक्षा में कहा गया है कि कर्मो के द्वारा जीव परतंत्र हो जाता है और जीव के द्वारा मिथ्या दर्शनादि परिणामों से जो उपार्जित होते हैं वे भी कर्म है।
कर्म शब्द के अर्थ ___कर्म का दायरा या फलक बहुत विशाल है, जैसाकि हमने उपर कहा कि कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया होता है उसे कर्म कहते हैं । तद्नुसार हमारी दिनचर्या की प्रत्येक प्रवृत्ति कर्म है। आजीविका के लिए किया जानेवाला श्रम भी कर्म है, जब कि कर्मकाण्डी यज्ञ आदि कर्म क्रियाओं को कर्म मानते हैं । पुराणों में व्रत नियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्म माना गया है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है कि उत्पेक्षण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमनरूप पाँच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। योग दर्शन में संस्कार को कर्म कहा गया है, तो बौद्ध दर्शन
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