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________________ कर्मबंध और उसके कारण शेखरचन्द्र जैन कर्मवाद जैन दर्शन में कर्म शब्द विशेष रूप से प्रचलित है । कर्म शब्द के सामान्यतः अर्थ कर्म कारक · क्रिया आदि प्रसिद्ध हैं । यद्यपि कर्म शब्द कार्यान्वयन के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध अर्थ है, परन्तु जैन आगम में उसके कुछ विशेष अर्थ हैं । जैन दर्शन ने कर्म को सर्वाधिक महत्त्व देते हुए उसे समस्त क्रियाओं का आधार माना है । इस दृष्टि से यह जैन दर्शन का प्राण सिद्धान्त है । स्याद्वाद की नींव पर ही कर्म की इमारत स्थित है। कर्म का यह विशेष सिद्धान्त जैन दर्शन की वैज्ञानिकता पर प्रकाश डालता है और इसे पुष्ट भी करता है । प्रत्येक जीव की स्वतंत्र सत्ता एवं कर्मठता इसी से सिद्ध हो सकती है। मनुष्य जो भी कार्य करता है वह कर्म के अन्तर्गत समाहित होता है । प्रत्येक जीव अपनी प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न कार्य करता है। इतना ही नहीं यह कर्म प्रत्येक प्राणी, मनुष्य सब में अलग-अलग ढंग से, या यों कहे किं स्वतंत्र रूप से व्यक्त होता है । यही कारण है कि मनुष्य की बाह्य रचना एकसी होने के बाद भी उनके आकार-प्रकार-बुद्धि-वैभव, स्वास्थ्य अलग-अलग होते हैं। एख ही माँ-बाप की संतानों में भी अलग-अलग व्यवहार, बुद्धि, आचार-विचार अलग-अलग होना ही इस तथ्य की पुष्टि है कि कर्म की स्वतंत्र सत्ता है। हम जैसा कार्य करेंगे हमें वैसा ही फल मिलेगा ऐसी मान्यता प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार की है। आचार्यो का मत है कि व्यक्ति की समस्त प्रवृत्तियों के मूल में प्रेरणा स्वरूप या निमित्त स्वरूप राग-द्वेष रहतें हैं । ये राग-द्वेषात्मक भाव संस्कार रूप में स्थायी बनकर परिणाम देते हैं और संसार बनाते रहते हैं। प्रत्येक जीव अपने वचन और कार्य से कुछ न कुछ करता रहता है । यह समस्त क्रिया ही कर्म है। कर्म के प्रवेश द्वार मन, वचन और कार्य हैं । इन्हे ही जीवकर्म या भावकर्म कहते हैं । प्रायः सभी दर्शनों ने इसका स्वीकार किया है लेकिन भाव कर्म से प्रभावित होकर कछ सक्ष्म जङ पदगल स्कंध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते है, यह बात सिर्फ जैनागम ही बतलाता है। ये सूक्ष्म स्कंध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं, जो रूप, रस, गंध आदि के कारण मूर्तिक होते हैं । जैसे-जैसे कर्म जीव करता है, वैसे ही स्वभाव को लेकर ये द्रव्य कर्म उसके साथ बंधते है और कुछ काल पश्चात परिपक्य दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं । यही कर्म का फलदान है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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