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________________ वसन्तकुमार भट्ट SAMBODHI ऐसे कर्म करने के बाद अपना नाम या तैलचित्र भी रखवाते हैं। तब ऐसे कर्म "लोकसंग्रह" के कर्म नहीं कहे जायेंगे । क्योंकि ऐसे दानकर्म करते समय फलाशा रखी गई होती है । अपना यश फैले इस दृष्टि से नाम उत्कीर्ण करवाना या तैलचित्र रखवाना - यह सभी बातें 'लोकसंग्रह' में नहीं आती हैं। अलबत्ता, ऐसे कर्मों को 'सत्कृत्य' (पुण्यजनक कर्म) निश्चित कहा जा सकता है । लेकिन 'सत्कृत्य' भी आखिर में कर्मबन्धन तो पैदा करेगा ही। गीता के 'कर्मयोग' में कहा गया है कि - बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ॥ २-५० 80 "जो सही कर्मयोग करने की बुद्धिवाला होता है वह इस लोक में ही (अपने आयुष्यकाल में ही) सुकृत (पुण्य) एवं दुष्कृत (पाप) दोनों को यहीं त्याग देता है।" क्योंकि जैसे पाप बन्धनकर्ता है, वैसे पुण्य भी बन्धनकर्ता है ही । दान दे कर, या दूसरा कोई सत्कृत्य करके आदमी अपने को अज्ञात रखे और मन में ऐसा सोचे कि ईश्वर ने मुझ से यह काम करवाया, यह काम करने की मुझे बुद्धि दी, शक्ति दी यही मेरे संतोष का, आनन्द का विषय है। तो ऐसे कर्म 'सुकृत' न रह कर, 'लोकसंग्रह' का कर्म बन जाता है; और ऐसे कर्म से बन्धन का अभाव उत्पन्न होता है। इसी को ही जीवन जीने की कला कहते है | योग: कर्मसु कौशलम् । कर्मों में कुशलता कैसे बर्ती जाय ? तो, कर्म ऐसे करने चाहिए कि जिससे बन्धन ही उत्पन्न न होने पाय ! कर्म करने की ऐसी कुशलता को ही योग कहते है; 'कर्मयोग' कहते है । विश्वरूपदर्शन के प्रसङ्ग में श्रीकृष्णने अर्जुन को कहा था कि इस समग्र लोक का संहार करनेवाला 'काल' हूँ । सामने खड़े हुए सभी को मैंने पूर्व में ही मार डाला है । तुझे (अर्जुन को ) तो केवल उनके संहार में निमित्त बनना है । निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ! अतः अर्जुन को दुःशासन आदि आततायियों को मारते समय, और दुष्कृत्यों में मूकसंमति देनेवाले भीष्म, द्रोणादि को भी मारते समय "मैं उनको मारता हूँ" ऐसा सोचना ही नहीं है । कालपुरुष के ईश्वर के प्रतिनिधि - बनकर मुझे तो लडना है । परमात्मा मेरे द्वारा उनका वध करवाना चाहते हैं ऐसा विचार स्थिर रखकर, कौरवों का वध करना है । ऐसे आततायिओं का हनन रूप कर्म स्थूल दृष्टि से हिंसा कर्म होते हुए भी उस में समाज की अनेक निर्दोष द्रौपदीयाँ के संरक्षण का उत्कृष्ट हेतु समाहित था । अतः वह युद्धकर्म भी 'लोकसंग्रह' का कर्म था | अर्जुन के द्वारा होनेवाला यह "लोकसंग्रह" का कर्म कर्मबन्धन - - उत्पन्न करनेवाला नहीं था ॥(५) - Jain Education International ( ४ ) गीता के चतुर्थ अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा 'कर्मयोग' की परम्परा के बारे में कहा गया है। परमात्मा ने यह कर्मयोग सब से पहले सूर्य से कहा था । सूर्यने मनु से कहा, मनु ने इक्ष्वाकु राजा से कहा था । और आज वही कर्मयोग श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं । यहाँ पर, कर्मयोग में सब से पहले दीक्षित होनेवाले व्यक्ति के रूप में जो, सूर्यदेवता का नाम है वह विचारणीय है। सूर्य का उदय होने पर सृष्टि का उद्भव एवं प्रवर्तन होता है । वह अपने निजि स्वार्थ के लिए तप्त नहीं होता है, वह केवल लोकसंग्रहार्थ ही प्रवृत्त I For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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