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Vol. xxVI, 2003 -
कर्मयोग के द्वारा कर्मबन्धन का अभाव (३) कर्मयोग के प्रवृत्तिमार्ग पर चलने से परम तत्त्व की प्राप्ति भी होती है, ऐसा कहनेवाले (३१९) पूर्वोक्त श्लोक में - कार्य कर्म समाचर (अनासक्त हो कर) "करने योग्य" कर्म अच्छी तरह से करते रहो - ऐसा जो कहा गया है, उसको देखकर हमें प्रश्न होगा कि गीताकार के मन में ऐसे कौन से कर्म होगें कि जिसको वह "कार्यं कर्म" (करने योग्य कर्म) कहते है ? इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट शब्दों में तीसरे अध्याय में दिया गया है :
(१) शरीरयात्रा (जीवननिर्वाह) चलाने के लिए प्राप्त होने वाले कर्म (३-८) (२) यज्ञार्थक कर्म (कृतज्ञताबुद्धि से प्रेरित हो कर, समर्पण की भावना से, ममत्व के त्याग की
भावना से किये जानेवाले सभी कर्म को यज्ञार्थक कर्म कहते है) (३-९) और(३) लोकसंग्रह की भावना से प्राप्त होनेवाले कर्म लेख. के विस्तारभय से हम केवल 'लोकसंग्रह' पर ही विचार करेंगे ।
(३) कर्म करने के बावजूद भी कर्मबन्धन का अभाव रहे ऐसे कौन से कर्म हैं ? इनकी गिनती करते हुए गीताने १. शरीरयात्रा के लिए कर्म, २. यज्ञार्थक कर्म और ३. लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए . ऐसा कहा है।
.. लोक: संग्रह्यतेऽनेन इति लोकसंग्रहः । जिससे जनसमुदाय योग्य कर्म में जुड़ा रहे इसी कर्म को 'लोकसंग्रह' के कर्म कहते हैं । समाज के श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली महापुरुषों, समाज के लिए जो आदर्श बन सके ऐसे समाज सेवा के और समाजसंरक्षण के जो कर्म होते है उसी को 'लोकसंग्रह' के कर्म कहते हैं । ऐसे कर्म कभी भी कर्मबन्धन उत्पन्न नहीं होने देते । (३-२० से २६)
... श्रीकृष्ण कहते है कि कौरवों और पाण्डवों के इस युद्ध में जिस की हार हो या जित, लेकिन उनसे श्रीकृष्ण को कोई भी लाभ या हानि नहीं हैं। फिर भी वह यदि द्रौपदी का वस्त्राहरण करनेवाले यह समाजविरोधी तत्त्वों का विनाश करने में निमित्त बननेवाले पाण्डवों को साहाय्य करने के लिए आज उपस्थित न हो जाय तो निर्दोष प्रजाजनों में अन्य स्त्रियाँ भी सुरक्षित नहीं रह सकेंगी । अतः कौरवों का विनाश अतीव आवश्यक है । इन को नियन्त्रित करने के लिए, और इस तरह से 'लोकसंग्रह' - लोक संरक्षण-करने के लिए श्रीकृष्ण को क्रियाशील होना आवश्यक बन गया है। श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि - जिस तरह से कोई अज्ञानी फलाशा की ओर आसक्त हो कर कर्म करने में दत्तचित्त रहता है; उसी तरह से लोकसंग्रह करने के इच्छुक ज्ञानी व्यक्ति भी लोकसंग्रह के कर्म में संलग्न हो जाय । ऐसे 'लोकसंग्रह' के आशय से प्रेरित हो कर किये गये कर्म भी कर्मबन्धन को उत्पन्न नहीं करते हैं- भगवद्गीता के 'कर्मयोग' का विवरण यहाँ पूर्ण होता है।
समाज में अनेक दानी महात्मा धर्मशाला, अस्पताल, शाला-महाविद्यालय इत्यादि का निर्माण करवाने के लिए दान दिया करते हैं । ऐसे दानकर्मों से भी लोकसमूह का कल्याण ही होता है। परन्तु
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