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वसन्तकुमार भट्ट
SAMBODHI
प्रश्न के समाधान देने के लिए जो गीता प्रस्तुत हुई है उसको सुनकर अर्जुन ने क्या किया था ? तो इसका प्रत्युत्तर तो स्पष्ट है कि अर्जुन युद्धकर्म करने के लिए उद्यत हुआ था । करिष्ये वचनं तव (१८७३) बोलकर वह युद्धकर्म में प्रवृत्त हुआ था। इस तरह से सोचें तो, "कर्मों का त्याग कर देना चाहिए" ऐसा उपदेश गीता में से नहीं निकलता । कतिपय आचार्यों ने "परिसमाप्यते" शब्द का. "कर्म पूर्ण हो जाते हैं, कर्म करना अवशिष्ट नहीं रहता"-ऐसा रूढार्थ लिया है ।(२) किन्तु परि + सम् + आप् (प्राप्त करना) धातु का प्राथमिक (व्याकरणिक) अर्थ तो "(ज्ञान हो जाने के बाद) चारों ओर से (कर्म करना) प्राप्त होता है"- ऐसा भी होता है । अतः परमात्म तत्त्व का ज्ञान हो जाने से जैसे जीवात्मा में भक्ति का प्रकटीकरण होता है, उसी तरह से (ज्ञानी के लिए) 'कर्मयोग' करना भी प्राप्त होता ही है, यह भी निर्विवाद बात है ।(३)
श्री कृष्ण की दृष्टि में एक ओर कर्म करना अ-निवार्य है, तो दुसरी ओर कोई भी कर्म बन्धन को तो जन्म देता ही है । अतः अब यह सोचना चाहिए की किस अभिगम से कर्म किया जाय तो वह. कर्म जीवात्मा के लिए बन्धनकर्ता न होवे । संक्षेप में, कहें तो - किस तरह से कर्मबन्धन का अभाव रहे उसी का मार्ग वर्णित करना यही गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य है।
(१)
गीताकार के लिए 'कर्मयोग' का निरूपण करना वही प्रधान लक्ष्य है, किन्तु आनुषंगिक रूप से उस में 'कर्मवाद' का भी निरूपण प्राप्त होता है । इस कर्मवाद की चर्चा बहुत व्यापक स्तर पर की गई है, और पूरे ग्रन्थ में वह विकीर्ण भी है । अत: गीता का केन्द्रवर्ती सन्देश समझने में अध्येता को बार बार सम्मोह हो जाता है। अतः 'कर्मयोग' एवं 'कर्मवाद' में क्या अन्तर है ? यह समज लेना चाहिए :
१. 'कर्म' किसे कहते है ? और २. कर्मबन्धन कैसे लगते है ? एवं ३. जन्म जन्मान्तर से लगे हुए कर्मबन्धनों में से मुक्ति कैसे प्राप्त की जाय? इन तीनों प्रश्नों के साथ जुड़ी हुई चर्चा को गीता का "कर्मवाद" कहते है। इसमें इस जन्म में किये हुए सुकृत से प्राप्त कर्मबन्धन के परिणाम स्वरूप श्रीमन्त या योगी व्यक्ति के घर में पुनर्जन्मादि होने की बात; या दृष्कृत से जनित कर्मबन्धनों के फलस्वरूप अशुभ नरक या पापयोनि में जन्म इत्यादि मान्यताओं का निरूपण समाविष्ट होता है। इसी तरह से (क) 'कर्म' को उत्पन्न करनेवाली त्रिगुणात्मिका क्षर प्रकृति और (ख) प्रकृति के कर्मों को अपना कर्म मान कर "अमुक कर्म मैं कर रहा हुं" ऐसे अहंकार (रूप एकमात्र अज्ञान) से कर्मबन्धन में फसनेवाला अक्षरपुरुष (जीवात्मा) से सम्बद्ध सांख्यदर्शनोक्त तत्त्वज्ञान, एवम् (घ) इन दोनों (क्षरप्रकृति एवं अक्षरपुरुष) से अतिक्रम करके सर्वोच्च स्थान पर रहनेवाले पुरुषोत्तम परमात्म तत्त्व की नयी अवधारणा - यह सब गीता की ज्ञानमीमांसा के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
___ परन्तु, कर्म करने पर भी, किस दृष्टिकोण से कर्म किया जाय कि वह कर्म जीवात्मा के लिए कर्मबन्धन पैदा न करे ? इसी प्रश्न के निरूपण को "कर्मयोग" का निरूपण कहते है ।
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