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________________ Vol. XXVI, 2003 कर्मयोग के द्वारा कर्मबन्धन का अभाव (२) आत्मा की अमरता का उपदेश देते हुए, भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में ही श्री कृष्णने स्वाभिमत 'कर्मयोग' के वर्णन का आरंभ किया है : अर्जुन का मूलभूत प्रश्न तो यही है कि हिंसापूर्ण युद्धकर्म करने पर क्या मुझे कर्मबन्धन नहीं लगेंगे ? अर्जुन के मत से उसको इस हिंसा का कर्मबन्धन लगनेवाला ही है। अत: वह युद्धकर्म करे या उसका त्याग कर दे - इस विषय में जगद्गुरु श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन चाहता है । अर्जुन के प्रश्न का समाधान देते हुए श्रीकृष्ण ने तीन बातें बताई है; जिनमें किस दृष्टि से कर्म किया जाय ? अथवा कौन से कर्म किये जाय तो वह कर्म करने पर भी कर्मबन्धन का अभाव रहेगा इसका निरूपण प्रस्तुत हुआ है : ___ (१) स्वधर्म प्राप्त कर्म करने से कर्मबन्धन लगता नहीं है। जैसे कि - अर्जुन 'क्षत्रिय वंश' में उत्पन्न हुआ है ।(४) अत: उसका यह स्वधर्म है कि वह युद्ध से पलायन न करे । कोई क्षत्रिय राज्य विस्तार की लालसा से, या शत्रुता से प्रेरित हो कर (राग या द्वेष से) युद्ध-कर्म करे, और उसमें निर्दोष जीवों की हत्या करें तो यह निश्चित रूप से उसको कर्मबन्धन में डाल सकता है। परन्तु अर्जुन के पक्ष में बात कुछ अलग थी। उसके लिए तो यह युद्ध अपने आप सामने से आया हुआ था । (यदृच्छ्या चोपपन्नम्) उसके अधिकार का राज्य किसीने छीन लिया था। श्रीकृष्ण का दूतकर्म (शान्ति का प्रयास) भी निष्फल हुआ था । दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, शकुनि जैसे आततायिओंने निर्दोष, असहाय द्रौपदी का वस्त्राहरण करने जैसा असमाजिक दृष्कृत्य भी किया था। इसके बाद उपस्थित हुए इस युद्ध को, श्रीकृष्ण के शब्दों में “धर्मयुद्ध" कहना ही उचित होगा। इसमें से यदि अर्जुन पलायन कर जाय तो ऐसे युद्धकर्म का त्याग • ही उसको कर्मबन्धन में बांध देगा । अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ २-३३ ... .अत: गीताकार का मत है कि ऐसा युद्ध तो अर्जुन को करना ही चाहिए । “में जीतूंगा कि नहीं ?" ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिए । अर्थात् इस युद्धकर्म में संलग्न होते समय उसके फल की ओर उसको ध्यान नहीं देना है। सिद्धि - असिद्धि, लाभ-अलाभ या जय-पराजय रूप किसी भी प्रकार के कर्मफल की आशा, अपेक्षा या आकांक्षा रखे बिना – पूर्णतः फलासक्ति का त्याग करके - अर्जुन ने यदि स्वधर्मप्राप्त कर्म किया होगा तो निश्चित ही ऐसा कर्म उसके लिए बन्धनकर्ता नहीं बनेगा । श्रीकृष्ण द्वारा निर्दिष्ट 'कर्मयोग' का यह प्रथम सोपान है । (२-३१ से ३३) . (२) ईशावास्योपनिषद् से प्रेरणा लेकर, गीताकारने 'कर्मयोग' की चतुःसूत्री रूप जो केन्द्रवर्ती श्लोक दिया है, वह इस तरह है : कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन । ___मा कर्मफलहेतुर्भूः मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ २-४७ "हे अर्जुन ! कर्म करने तक ही तेरा अधिकार है । पर उसके (कर्मके) फल के बारे में तेरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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