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________________ कर्मयोग के द्वारा कर्मबन्धन का अभाव वसन्तकुमार भट्ट भूमिका : श्रीमद् भगवद्गीता में कुल मिला कर तीन प्रश्नों की चर्चा दिखाई पडती है : (१) कर्म क्या है ? और कर्मबन्धन किस तरह लगता है ? (२) कर्मबन्धन में से कैसे मुक्ति प्राप्त की जाय ? लेकिन इन दोनों प्रश्नों की चर्चा आनुषंगिक रूप से प्रस्तुत हुई है। गीता का मुख्य प्रश्न तो तीसरा ही है, और वह है : कर्म-त्याग किये बिना ही, अर्थात् कर्म करते हुए भी कर्मबन्धन का अभाव कैसे प्राप्त किया जाय ??? इस तीसरे प्रश्न का जवाब ढूंढते हुए ही हमारे सामने भगवद्गीता में निरूपित "कर्मयोग" का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है। भूतकाल में या पूर्वजन्म में किये हुए कर्मों और उससे प्राप्त कर्मबन्धन को जलाने के लिए एक ज्ञानाग्नि की जरुरत रहती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि - ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ।) (४-३७) ज्ञान में यह ताकात है कि वह जीवात्मा के सभी कर्मबन्धनों को जला के भस्म कर देता है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि, ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद, ज्ञानी जीवात्मा का देहावसान हो जाता • है। काल- पुरुष की इच्छा के बिना तो किसी की भी मौत भी नहीं होती है। अतः जीवन के आरम्भ से लेकर ही, अथवा ज्ञानोपरान्त अवशिष्ट जीवन में, वही कालपुरुष (जिसका जिक्र ११ वे अध्याय में "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः" (११-३२) शब्दों से 'विश्वरूपदर्शनयोग' में किया गया है) के निमित्त बन कर, श्री कृष्ण के द्वारा निर्दिष्ट "कर्मयोग" करने को तो प्राप्त होता ही है । सर्वकर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते । (४-३३) "हे पार्थ ! ज्ञान के अन्दर (अर्थात् ज्ञान हो जाय ऐसी स्थिति में) अखिल कर्मों की परिसमाप्ति हो जाती है।" इस वाक्य का अर्थ कतिपय आचार्यों ने ऐसा किया है कि ज्ञानी व्यक्ति को "नैष्कर्म्य" की प्राप्ति होती है । अर्थात् ज्ञानी के लिए कोई कर्म करना आवश्यक नहीं रह जाता । उस को सभी कर्मों का त्याग कर देना चाहिए । परन्तु जैसा कि श्री बाल गंगाधर तिलक कहते हैं हमारे लिए विचारणीय प्रश्न तो यही है कि क्या अर्जुन ने गीता का श्रवण कर लेने के बाद (ज्ञानोपदेश पूरा हो जाने के बाद) कर्म का त्याग कर दिया था ? कुरुक्षेत्र का मैदान छोड़ कर अर्जुन ने क्या संन्यास ले लिया था ? गीता का उपक्रम एवं उपसंहार देखने से पता चलता है कि गीताने जो मूलभूत प्रश्न उठाया है वह तो यह है कि युद्धकर्म किया जाय या नहीं ? और इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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