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________________ Vol. xxVI, 2003 पुराण, सर्ग और सृष्टि-विकास 103 गुण तो अवश्य रहता होगा । इसलिए हम यह कह सकते हैं कि तन्मात्राएँ एकैक गुण वाली नहीं है । इस सम्बन्ध में आचार्य विज्ञानभिक्षु आचार्य वार्षगण्य५२ डॉ. राधाकृष्णन् के मतों का अध्ययन किया जा सकता है। इन्होंने तन्मात्राओं में एक से अधिक गुणों का होना माना है। तन्मात्राओं से ही स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर की उत्पत्ति होती है। __ प्रकृति का विकास द्विविध शरीर के विवेचन से समझा जा सकता है। ये द्विविध शरीर हैं - सूक्ष्म एवं सूक्ष्म शरीर । मत्स्यपुराण में कहा गया है कि जिससे तन्मात्राओं का आश्रय लिया जाता है उसे शरीर कहते हैं । जन्म-जन्मान्तर के भोग के लिए नवीन स्थूल शरीर मिलता है किन्तु सूक्ष्म शरीर मनोभौतिक होता है और एक ही रहता है । यह कर्मो का अक्षय भण्डार है ।५४ सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर है। इसे लिंग-शरीर के नाम से भी जाना जाता है। पुरुष के प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिए सूक्ष्मशरीर आवश्यक है, क्योंकि पुरुष या जीव को नवीन स्थूल शरीर धारण करने के लिए सूक्ष्म शरीर की आवश्यकता पड़ती है। कारण, संतरण आदि गुण सूक्ष्म शरीर के ही हैं, स्थूल के नहीं । सूक्ष्म शरीर का संतरण धर्म व अधर्म से होता है । ये धर्म और अधर्म सूक्ष्म शरीर के धर्म नहीं (गुण) हैं अपितु ये बुद्धि के धर्म है । सूक्ष्म शरीर के विभिन्न अवयवों में बुद्धि भी एक घटक है। इसलिये बुद्धि से युक्त होने के कारण ही सूक्ष्म शरीर संतरण करता है । इस लिंग शरीर का संप्तरण पुरुषार्थ के लिए होता है ।५६ लिंग-शरीर की रचना पुरुष की भोग प्रदान करने के लिए होती है । लिंग शरीर स्वतः भोग सम्पन्न नहीं करता, अपितु वह भोग स्थूल शरीर के माध्यम से करता है । अतः सूक्ष्म शरीर के भोग-सम्पादन के लिए स्थूल शरीर की रचना होती है। स्थूल-शरीर भौतिक तत्त्वों यथा पृथ्वी, जलादि से मिलकर बना है। आचार्य गौडपाद स्थूल शरीर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपने मत इस प्रकार से व्यक्त करते हैं - रक्त, मांस, अस्थि, स्नायु, शुक्र और मज्जा से बढ़ा हुआ पंचभौतिक शरीर अवकाश प्रदान करने से आकाश, बढ़ने से वायु, पाक से तेज, संग्रह से जल तथा धारण से पृथ्वी - इस प्रकार समस्त अवयवों से युक्त होकर माता के गर्भ में से जीव बाहार आता है ।५८ माता के गर्भ से स्थूल शरीर की उत्पत्ति रज और वीर्य के मिलने से होती है। इन पंचभौतिक तत्त्वों में से पृथ्वी को ही स्थूल शरीर का बीज माना जाता है, जो हिरण्यमय अण्ड से निकलता है । यह अण्ड दशगुणित वायु, तेज एवं जल से परिवेष्टित रहता है; इस अण्डरुपी पृथ्वी के बीच में स्वयम्भू का चतुर्दश भुतनात्माक स्थूल शरीर रहता है । स्वयम्भू का यह शरीर संकल्पमात्र से उत्पन्न होता है ।" इसी विराट् शरीर वाले स्वयम्भू पृथ्वीरुप अपने नाभिकमल के कर्णिका स्थानीय सुमेरु पर्वत पर चतुर्भुजी ब्रह्मा की सृष्टि करके उनके द्वारा स्थावरपर्यन्त व्यष्टि शरीरों की सृष्टि करते हैं ।६° उद्भिज्, स्वेदज, अण्डज और जरायुज ये चार प्रकार के स्थूल शरीर से युक्त जीव इस जगत् मे पाए जाते हैं ।६१... ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि सृष्टि की प्रक्रिया प्रकृति और पुरुष से प्रारम्भ होती है और स्थूल शरीर पर आकर समाप्त होती है। प्रकृति और पुरुष दोनों स्वतन्त्र तत्त्व है अतः इनमें संयोग कैसे होता है यह एक समस्याजनक प्रश्न है। प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध की विवेचना करने में प्राय: दार्शनिकों (सांख्य) को कठिनाई होती है लेकिन इस कठिनाई को पौराणिकों ने अत्यन्त सरलतापूर्वक दूर किया है। प्रकृति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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