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सुनीता कुमारी
SAMBODHI
राजस् अहंकार से उत्पन्न हुई है। पुराणों में मन, ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को एक साथ इन्द्रियों के अन्तर्गत रखा गया है । अत: इसे वैकारिक एवं तैजस् दोनों प्रकार के अहंकार से उत्पन्न माना जा सकता है । रजस् को प्रवर्तक होने के कारण तैजस् भी कहा गया है । इन्द्रियाँ प्रवृत्तिशील होने के कारण तैजस् तथा विषय का प्रकाशक होने के कारण वैकारिक कही गई हैं । इन्द्रियाँ विषयों का प्रकाशन करती है । पंचज्ञानेन्द्रियाँ (चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका, त्वक्) क्रमशः रुप, शब्द, स्वाद, गन्ध तथा स्पर्श आदि विषयों का ज्ञान कराती हैं । पंच कर्मेन्द्रियाँ है - वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ । वाक् का कार्य ध्वनि का उत्पादन, पाणि का शिल्प अर्थात् बाह्य द्रव्य का यथेच्छ ग्रहण, स्थापन आदि, पाद का गमन, पायु का मलोत्सर्ग तथा उपस्थ का प्रजनन कार्य में सहायता प्रदान करता है। मन के द्वारा संकल्प-विकल्प आदि कार्य किए जाते हैं। पहले इन्द्रियों का अपने विषय से सम्बन्ध होता है । तत्पश्चात् आन्तरिक साधन अपना कार्य करते हैं तब हमें ज्ञान होता है। ज्ञानेन्द्रियों से गृहीत विषय का मनन मन से, अभिमान अहंकार से तथा निश्चय बुद्धि के द्वारा होता है। किन्तु वाणी आदि कर्मेन्द्रियों का कार्य करने का ढंग ज्ञानेन्द्रियों से भिन्न होता है । जिस क्रिया को करना होता है उसके अनुकूल संस्कार किसी उद्बोधक के द्वारा मन में स्मृतिरुप में उठ आते हैं और मन उस भावी क्रिया के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करता है। अहंकार अभिमान तथा बुद्धि निश्चय करती है। निश्चय के पश्चात् चेतन आत्मा की प्रेरणा से वह कर्मेन्द्रिय क्रियानुष्ठान में तत्पर हो जाती है।
स्पर्श, रुपादि मूलों की उत्पत्ति तन्मात्राओं से मानी गई है और तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार से । लिंग-पुराण के अनुसार तमोबहुल अहंकार से तन्मात्राएँ उत्पन्न होती है भूतादि के विकृत होने पर शब्द तन्मात्र उत्पन्न होता है शब्द से स्पर्श, स्पर्श से रुप, रुप से रस और रस से गन्ध तन्मात्र की उत्पत्ति होती है। इन्हीं तन्मात्राओं से क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी की उत्पत्ति होती है ।४९ यही पांचों तत्त्व सृष्टि के मूल तत्त्व माने गए हैं । अर्थात् चराचर जगत् के समस्त जीव-अजीव का निर्माण इन्हीं पंच-तत्त्वों के संयोग से होता है । आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी इनके अपने-अपने गुण हैं । जैसे - आकाश का शब्द. वाय का स्पर्श. अग्नि का रुप. जल का रस. तथा पृथ्वी का गन्ध । अब प्रश्न यह उठता है कि क्या इन तन्मात्राओं की उत्पत्ति के पाया जाता है ? क्योंकि तन्मात्राओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कहा गया की भूतादि के विकृत होने पर शब्द तन्मात्रा की सृष्टि हुई और उससे शब्द लक्षण वाला आकाश उत्पन्न हुआ फिर शब्दमात्र आकाश ने स्पर्शतन्मात्रा की सृष्टि की । इससे स्पर्श गुण वाला वायु उत्पन्न हुआ । शब्दमात्र आकाश ने स्पर्शमात्र को ढक लिया । वायु ने विकृत होकर रूपतन्मात्रा की सृष्टि की । वायु से ज्योति की उत्पति हुई । ज्योति का गुण रूप कहा जाता है । वायु की स्पर्शमात्रा को रूप-तन्मात्रा ने आच्छादित कर लिया फिर ज्योति की उत्पत्ति हुई । ज्योति का गुप रुप कहा जाता है। वायु की स्पर्शतन्मात्रा को रुपतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । ज्योति का गुप रुप कहा जाता है । वायु की स्पर्शतन्मात्रा को रुपतन्मात्रा की उत्पत्ति हुई । पुनः ताप से रसमय जल की सृष्टि हुई । जल की यह तन्मात्रा भी रुप तन्मात्रा से आवृत्त होती है । जलीय रसमात्रा की विकृति से गन्धमात्रा का उद्भव हुआ
और इसी से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई ।" यहाँ देखा जाए तो तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः हुई है । बाद की तन्मात्राएँ पहेले वाली तन्मात्रा की विकृति है, अतः बाद वाली तन्मात्रा में पहेले वाली तन्मात्रा का कुछ
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