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________________ Vol. xxVI, 2003 पुराण, सर्ग और सृष्टि-विकास 101 इसीलिए होती है, क्योंकि सृष्टि का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की और होता है । अव्यक्त से व्यक्त होने वाले पदार्थो में महत् तत्त्व सर्वाधिक सूक्ष्म है, लेकिन यह प्रकृति की अपेक्षा से स्थूल है और जैसे-जैसे सृष्टि का क्रम आगे बढ़ता जाता है, वह स्थूल होता जाता है। महत् तत्त्व को आद्यकार्य इसलिए माना गया है, क्योंकि कारण सर्ग का प्रयोजन पुरुष को भोग तथा अपवर्ग प्रदान करता है । महत् तत्त्व की अन्य कारणों की अपेक्षा पुरुष के सर्वाधिक समीप रहकर उसके भोग आदि को सम्पन्न करता है । वायुपुराण में धर्म आदि उत्कृष्ट गुणों से युक्त होने के कारण ही इस आद्य-कार्य को महत् की संज्ञा प्रदान की गई प्रकृति की प्रथम प्रसूति महत् तत्त्व जड़ तथा अचेतन होते हुए भी सत्त्वबहुल होने के कारण पारदर्शक तत्त्व है। अचेतन बुद्धि चेतन पुरुष के प्रतिबिम्ब से चेतनवत् प्रतीत होती है। महत्-तत्त्व चेतन पुरुष के समीप रहकर अपने व्यापार को सम्पादित करता है । अहंकार, मन तथा इन्द्रियों के व्यापार, महत् तत्त्व के लिए होते हैं । महत् एवं बुद्धि दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, क्योंकि बुद्धि में भी तत्त्व गुण की प्रधानता रहती है। लेकिन सत्त्व के साथ-साथ तमस गुण के मिल जाने से बुद्धि में पाए जाने वाले सद्गुण दुर्गुण में बदल जाते हैं । सम्भवतः इसी कारण बुद्धि और महत् तत्त्व को दो भिन्न तत्त्व मान लिया गया है। "सांख्य प्रवचन-भाष्य" में बुद्धि के दुर्गुण एवं गुण दोनों पर प्रकाश डाला गया है और कहा गया है कि बुद्धि में जो दुर्गुण उत्पन्न होते हैं उसका मुख्य कारण तमस का उपराग है । महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है । "वायुपुराण" में कहा गया है कि त्रिगुणात्मक महान् में जब रजोगुण की प्रधानता होती है, तब अहंकार उत्पन्न होता है । सांख्यदर्शन में भी यह कहा गया है कि महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है ।४२ विज्ञानभिक्षु का मत है कि महान् के पश्चात् जो उत्पन्न होता है वह अभिमानवृत्ति वाला अहंकार है ।४३ बुद्धि में "मैं" और "मेरा" का जो भाव उत्पन्न होता है, वही अहंकार है । इसके भ्रम में पडकर पुरुष स्वयं को कामी तथा स्वामी समझने लगता है। इसी अहंकार • या अभिमान का भाव हमारे लोकव्यवहार का मूल है । अहंकार को त्रिगुणात्मक स्वीकार करते हुए कहा गया है कि वैकारिक, तैजस और तामस भूतादि ये तीन प्रकार के अहंकार महत् से सम्भूत हुए हैं। इसे अहंकार, अभिमान, कर्ता और सत्ता आदि विभन्न नामों की संज्ञा दी गई है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने अहंकार का यह भेद कार्यभेद की दृष्टि से स्वीकार किया है। इससे अहंकार के अपने वास्तविक स्वरुप अथवा रचना में किसी प्रकार के भेद की सम्भावना नहीं की जा सकती। उनके अनुसार इन तीनों प्रकार के अहंकार से संकल्पपूर्वक एकादश इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है, किन्तु इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति में कार्यकारणभाव नहीं है इसलिए इनकी उत्पत्ति में कम नहीं है ।४५ . अहंकार से इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। पौराणिकों ने इन्द्रियों की कुल संख्या ग्यारह मानी है - पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय एवं मन । इनकी प्रकृति अलग-अलग है । अतः इनकी उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है । कूर्म-पुराण में इन्द्रियों को तैजस् अहंकार से उत्पन्न माना गया है ।४६ भागवत् पुराण में इन्द्रियों को तैजस् एवं वैकारिक अहंकार से उत्पन्न मान लिया गया है।४७ सांख्यदर्शन के महान् * आचार्य विज्ञानभिक्षु के विचार में मन वैकृत अहंकार से उत्पन्न हुआ है तथा पंच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पंचकर्मेन्द्रियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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