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100 सुनीता कुमारी
SAMBODHI गए हैं - पुरुष और प्रकृति । पुरुष चेतन है जबकि प्रकृति अचेतन । सृष्टि-प्रक्रिया में चेतन पुरुष का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विद्वानों की मान्यतानुसार भौतिक जगत् का निर्माण तो प्रकृति एवं उसके विकारों से हुआ है, पुरुष का इसमें कोई योगदान नहीं रहता है, क्योंकि यह चेतन होते हुए भी निष्क्रिय है। "सांख्यसूत्र" में पुरुष को निष्काम, निर्लिप्त, तटस्थ, मध्यस्थ, साक्षी, उदासीन, द्रष्टा और केवली कहा गया है ।३३
___ यह निष्क्रिय या अकर्ता इसलिए है, क्योंकि क्रिया उत्पन्न करने वाले रजोगुण का इसमें अभाव है। फिर भी पुरुष का प्रकृति के साथ संयोग होता है और इस संयोग के फलस्वरुप सृष्टि-प्रक्रिया का प्रारम्भ होता है । पुरुष चेतन है और प्रकृति अचेतन । दोनों की प्रकृति (गुण) अलग-अलग है तब भी इनमें सम्पर्क कैसे होता है ? यह एक विषम समस्या है, जिस पर विद्वानों ने चिन्तन किया है और अपने ढंग से समाधान प्रस्तुत किया है। उदाहरणस्वरुप प्रकृति भोग्या है, अत: उसे भोगने वाली कोई सत्ता भी अवश्य होनी चाहिए और इस रुप में पुरुष को प्रस्तुत किया गया है । पुरुष को मोक्षं या निर्वाण प्राप्त करना होता है इसलिए यह प्रकृति के सम्पर्क में आता है और प्रकृति के गुणों के परिणाम (सुखदुःखादि) को अपना समझकर सुखी-दु:खी होता है तथा उनसे मुक्ति प्राप्त करने की चिन्ता करता है । पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध के विषय में समस्या व समाधान की लम्बी परम्परा है । हम यहाँ इस प्रसंग में न उलझ कर मात्र इतना ही मानकर चलेंगे कि इन दोनों में संयोग होता है और तत्पश्चात् सृष्टि का प्रारम्भ हो जाता है। पुराणों में पुरुष व प्रकृति दोनों को विष्णु का दो रुप माना गया है । अतः एक ही तत्त्व के दो रुप होने के कारण भी इनके परस्पर संयोग के सम्बन्ध में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं उत्पन्न । होती।
दूसरा मूल तत्त्व "प्रकृति" है । यह जड और अचेतन है । इसे प्रधान अव्यक्तादि के नाम से भी जाना जाता है। इसे सम्पूर्ण जगत् का उपादान कारण माना गया है। अतः यह सभी स्थानों पर उपस्थित रहती है और इसी गुण के कारण इसे व्यापक और विभु माना गया है । सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीनों गुण प्रकृति के हैं । "सांख्यसूत्र" में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सत्व, रजस् और तमस् गुणों की साम्यावस्था का नाम
है ।५ विष्णुपुराण के अनुसार विष्णु जब सृष्टि की कामना करते हैं तब वे प्रकृति व पुरुष के अन्दर समाविष्ट हो जाते हैं और इस कारण प्रकृति के अन्दर हलचल मच जाती है। फलस्वरुप महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है । महत् तत्त्व से अहंकार की उत्पत्ति होती है और अहंकार से भूत, इन्द्रिय आदि का उद्भव होता है ।२६
___ तात्पर्य यह है कि प्रकृति में विकार उत्पन्न होने से महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है तत्पश्चात् अहंकारादि की सृष्टि होती है और इस तरह से जगत् का निर्माण होता है । महत् तत्त्व सृष्टि का आदि तत्त्व है। इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है - महान्, महत्, मति, भू, बुद्धि, संविद्, विपुर, चिति, प्रज्ञा, हिरण्यगर्भ । ईश्वर की इच्छा से प्रकृति-पुरुष का संयोग होता है और महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है ।८ महत् तत्त्व की रचना में प्रकृति के तीनों गुणों का सहयोग रहता है लेकिन सत्त्व गुण का आधिक्य होने के कारण इसे तत्त्वप्रधान कहा गया है। सर्गोन्मुख स्थिति में मूल कारण प्रकृति से महत् तत्त्व की उत्पत्ति
प्रकति है
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