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Vol. XXVI, 2003
पुराण, सर्ग और सृष्टि-विकास
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हैं । ये अत्यन्त क्रियाशील माने गए है। इन्हें पुरुषार्थी भी कहा गया है । ये मनुष्य बाह्य तथा आभ्यन्तर ज्ञान से सम्पन्न होते हैं ।२५ अनुग्रह-सर्ग : वैकृत-सर्ग के अन्तर्गत यह अन्तिम सर्ग है । पुराणों में समस्त प्राकृत-सर्ग को ही अनुग्रह-सर्ग मान लिया गया है। यह सर्ग तामसिक एवं सात्त्विक गुणों का सम्मिश्रित रुप है ।२६ मार्कण्डेयपुराण में इसके चार प्रकार बताए गए हैं यथा-विपर्यय, सिद्धि, शान्ति तथा तृष्टि ।२७ वायुपुराण में इन चारों के सम्बन्ध में२८ स्पष्टीकरण देते हुए कहा गया है कि स्थावरों में विपर्याय पाया जाता है । यह भक्षणशील एवं कठोर प्रवृत्ति का है एवं शक्तिहीन रुप में अवस्थित है । तिर्यक्-सर्ग वाले प्राणियों में शक्ति का संचार होता है । मानुषी-सर्ग अर्थात् मनुष्यों में सिद्धि गुण पाए जाते
हैं तथा देवों में तृष्टि । (9) कौमार सर्ग : कौमार-सर्ग के बारे में पुराणों मे कहा गया है कि यह प्राकृत एवं वैकृत इन दोनों
का मिश्रित रुप है ।२९ यह अन्तिम सर्ग प्राकृत-वैकृत उभयात्मक माना गया है । इस शब्द से सनत्कुमार के उर्ध्व दय का संकेत मिलता है । सनत्कुमार को ही विष्णु का अन्यतम अवतार माना गया है। श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती का विचार है कि "ध्यानस्थ मन से ही अन्य व्यक्तियों की सृष्टि हई -" यह कथन इस बात का प्रमाण है कि कमारों की सष्टि भगवदध्यानजन्य है तथा भगवज्जन्य भी है और इसीलिए वे प्राकृत-वैकृत कहे गए। इन विद्वानों के द्वारा एवं मान्य पुराणों में वर्णित कौमार-सर्ग के सन्दर्भ में जो विवरण हमें उपलब्ध होते है, उसके आधार पर इसे उभयात्मक
मानने में किसी प्रकार की शंका नहीं होनी चाहिए । सृष्टि-प्रक्रिया का विकास : पुराणों में सृष्टि के विकास का एक क्रम माना गया है और इस पर व्यापक रुप से चिन्तन हुआ है। सष्टि के विकास-क्रम पर चर्चा करने से पर्व हम नारद-पराण में वर्णित सष्टिप्रक्रिया का संक्षिप्त अवलोकन करेंगे । इसमें कहा गया है कि विष्णु आद्यशक्ति हैं । प्रकृति, पुरुष और काल इनके तीन रुप हैं । जब सृष्टि का प्रारम्भ होता है तब प्रकृति में उत्पन्न होता है जिसके कारण महत् (बुद्धि), सूक्ष्म तन्मात्राएँ, अहंकार, इन्द्रियाँ तथा पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होती है। इन्हीं महाभूतों से चराचर जगत् की सृष्टि होती है । जब जगत् (पृथ्वी) का अस्तित्व बन जाता है तब परमपिता इसे विभिन्न प्रकार के जीवों, प्राणियों, वनस्पतियों से परिपूरित कर देते हैं। इनकी उत्पत्ति में भी कम है। जैसे पहले तामसिक गुणों से युक्त जीवों (पशु-पक्षी) की उत्पत्ति होती है तत्पश्चात् देवादि गणों की रचना की जाती है जो सात्विक प्रवृत्ति वाले होते हैं । अन्त में राजसिक गुणों से युक्त जीव (मनुष्य) की उत्पत्ति होती है। इसके बाद इनकी सन्तति-परम्परा चलने लगती है जो सम्पूर्ण संसार में सृष्टि प्रक्रिया के क्रम को गतिशील बनाए रखती है ।३२ "नारदपुराण" यह उद्धरण सृष्टि के विकास-क्रम का एक चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। सृष्टि के इस विकास क्रम में प्रकृति, पुरुष, प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अतः सृष्टि के विकास-क्रम को समझने के लिए हमें उपर्युक्त तथ्यों पर विचार करना होगा।
सर्वप्रथम हम पुरुष-तत्त्व पर विचार कर रहे हैं । सृष्टि-प्रक्रिया में दो प्रकार के मूल तत्त्व माने
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