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________________ सुनीता कुमारी SAMBODHI प्राणियों की तरह अपनी चेतनता को प्रदर्शित करने की क्षमता नहीं होती है । सम्भवतः इसीलिए इस समय की सृष्टि को अन्धकार से युक्त माना गया है, क्योंकि यहाँ अन्धकार का तात्पर्य अज्ञान से ही है । इस सृष्टि को जलसृष्टि के नाम से भी पुकारा जा सकता है, परन्तु इसे मुख्य सृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है । इस सम्बन्ध में विष्णुपुराण में कहा गया है कि इस भूतल पर चिरस्थायिता की दृष्टि से पर्वतादि की मुख्यता है ।८ वायुपुराण के अनुसार इस समय के सृष्ट पदार्थों की बुद्धि और मुख्य कारण इन्द्रियाँ ढंकी हुई थी। इसलिए वे संवृत्तात्मा "नग" नामक मुख्यसर्ग कहलाए ।१९ इसके अतिरिक्त वैकृत सर्ग के पाँच भेदों में से सृष्टि का प्रारम्भ यहीं से माना गया इसलिए भी इसे मुख्य-सर्ग के नाम से अभिहित किया गया । (5) तिर्यक्-सर्ग : ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा की मुख्य सृष्टि से सन्तोष नहीं हुआ, क्योंकि वे पुरुषार्थ प्रधान सृष्टि की इच्छा रखते थे। अतः वे पुनः ध्यानमग्न हुए । उनके इस ध्यान के फलस्वरुप जो सृष्टि उत्पन्न हुई, वह तिर्यक् सर्ग के नाम से जानी गई । इस सृष्टि में पक्षी तथा पशु की उत्पत्ति हुई। इनमें तमोगुण की बहुलता थी अतः ये भी अज्ञानी हुए । अज्ञान के वशीभूत होकर ये उल्ट (विपरीत) व्यवहार करने लगे ।२० ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्ठाइस प्रकार के वधों से युक्त, अन्तःप्रकाश तथा परस्पर में एक दूसरे की प्रवृत्ति से अनभिज्ञ होते थे । ब्रह्माण्डपुराण में अट्ठाइस प्रकार के तिर्यक्-सर्ग के प्राणियों का उल्लेख किया गया है। एकादश इन्द्रियाँ, नौ प्रकार के आत्मा, आठ तारकादि ।२९ जैसाकि हम देख रहे हैं वनस्पति, पर्वतादि स्थावर वस्तुओं की सृष्टि के बाद पशु-पक्षी आदि की उत्पत्ति तिर्यक्-सर्ग में हुई है। अतः हम यह कह सकते हैं कि स्थावर सृष्टि के बाद जंगम सृष्टि का यह प्रारम्भिक रुप है। (6) देव-सर्ग : तिर्यक् योनि की सृष्टि से भी ब्रह्मा सन्तुष्ट नहीं हुए । वे पुनः ध्यानमग्न हुए । तत्पश्चात् सात्त्विक सर्ग की उत्पत्ति हुई । यह सर्ग उर्ध्वस्त्रोत हुआ । यह उर्ध्व दिशा की ओर ही व्यवस्थित रहा । अत: उसकी गति ऊपर की ओर ही थी । सम्भवतः इसीलिए इसे उर्ध्वस्त्रोता भी कहा जाता है ।२२ इसे देव-सर्ग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस सर्ग में देव की सृष्टि हुई ।२२ इस सर्ग में उत्पन्न होने वाले देवों में सत्त्वगुण की प्रधानता थी अत: इस सर्ग के जीव सुखी और समानरुप से व्यवस्थित थे। (7) मानुष-सर्ग : देव-सर्ग की सृष्टि करके ब्रह्मा प्रसन्न हुए लेकिन इतने पर भी उन्हें सन्तोष प्राप्त नहीं हुआ । वे परम पुरुषार्थ की साधना करने वाले जीव को सृष्ट करने की इच्छा रखते थे । अतः वे पुनः ध्यानमग्न हुए और तब एक ऐसे नवीन प्राणीवर्ग को उत्पन्न किया जो उर्ध्वगामी न होकर पृथ्वी पर ही विवरण करने लगा । पृथ्वी पर विचरण करने के कारण वह मध्यम प्रवृत्ति वाला हुआ इसलिए इसे ऊर्वाक्-स्रोता कहा गया ।२४ इस सर्ग के जीव सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से परिपूर्ण थे अतः उनमें दुःख की मात्रा अधिक थी और वे बार-बार कर्म करने वाले हुए । ये अन्तः और बाह्य सभी ओर से ज्ञानवान् हुए और सृष्टि में सहायक माने गए । ये सिद्धात्मा जीव गन्धर्वो के सहधर्मी माने गए हैं । विष्णुपुराण के अनुसार इस सर्ग में उत्पन्न होने वाले जीव मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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