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Vol. xxV, 2002 जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व
147 १. प्रायश्चित्त – प्रायश्चित्त का अर्थ हैं – व्रत में प्रमादजनित दोषों का शोधन करना । प्रायश्चित्त दो शब्दों के योग से बना है - प्रायः + चित् । जैन आचार्य ने कहा है - प्रायः का अर्थ पाप और चित् का अर्थ उस पाप का शोधन करना । अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं ।४५
आचार्य अकलंक के अनुसार अपराध का नाम प्रायः है, चित् का अर्थ है शोधन । जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है।४६ - प्रायश्चित्त को प्राकृत भाषा में “पायच्छित्त” कहते हैं । जैन आचार्यने पायच्छित्त शब्द की उत्पत्ति के बारे में कहा है-“पाप' अर्थात् पाप का जो छेदन करता है, अर्थात् पाप को दूर कर देता है उसे पायच्छित्त कहते हैं।
___ स्थानांग सूत्र में प्रायश्चित्त के दस प्रकार बताये गये हैं। इससे दोष दूर होते हैं। हृदय शुद्ध होता है। ' तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित्त के नौ प्रकार बताये गये हैं। इन्हीं नौ प्रकारों का वर्णन निम्नवत् प्रस्तुत है
१. आलोचन ४. विवेक ७. छेद २. प्रतिक्रमण ५. व्युत्सर्ग ८. परिहार ३. तदुभय
६. तप
९. उपस्थापन . १. आलोचन- अपनी भूल या गलती को गुरु के समक्ष शुद्ध भाव से प्रकट करना या स्वीकार करने को “आलोचन" कहते हैं।
२. प्रतिक्रमण – जीव द्वारा हो चुकी भूल या गलती का अनुताप करके उससे वह मुक्ति चाहता है, तथा भविष्य में कोई नई भूल न हो, इसके लिए सावधान रहना ही "प्रतिक्रमण" है।
३. तदुभय - इस स्थिति में जीव द्वारा हुई भूल को स्वीकार करना और भविष्य में कोई भूल न हो, इसके लिए प्रयास करना । ये दोनों क्रियाएँ “तदुभय' में साथ-साथ होती है ।
४. विवेक - इसमें किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ तथा पेय पदार्थ के विचार आने पर उसका पूर्ण परित्याग करना “विवेक" कहलाता है।
५. व्युत्त्सर्ग – एकाग्रता पूर्वक शारीरिक तथा मानसिक व्यापारों का परित्याग करना “व्युत्त्सर्ग" कहलाता है।
६. तप - सभी प्रकार के आवश्यक वस्तुओं पर मन का नियंत्रण रखना “तप" कहलाता है ।
७. छेद – दोष के अनुसार वर्ष, मास, पक्ष तथा दिवस की संख्या का प्रव्रज्या कम कर देना ही "छेद" कहलाता है।
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