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146 डा० मुकुल राज महेता
SAMBODHI ____ किसी भी साधक के लिए पौष्टिक व मधुर भोजन सर्वथा त्याज्य नहीं है । वह उसे केवल आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करता है किन्तु उसका स्वाद नहीं लेता । स्वाद के लिए आहार को चबाना, चूसना आदि दोष है ।३८ रस त्याग के अनेक भेद बताये गये हैं।
५. विविक्त शय्यासन (प्रति संलीनता)- निर्बाध रूप से एकान्त स्थान में निवास करना अथवा दूसरे के हित में लीन आत्मा को अपने हित में लीन बनाने की प्रक्रिया ही वास्तव में प्रति संलीनता या विविक्त शय्यासन कहलाता है। इसलिए इस संलीनता को स्वसंलीनता भी कहते हैं। इन्द्रिय कषाय आदि को योग के माध्यम से बाहर से हटाकर भीतर अपने मन में गुप्त करना या छिपाना संलीनता हैं।
भगवतीसूत्र में प्रतिसंलीनता के इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता और विविक्त शय्यासन सेवना आदि चार भेद किये हैं ।३९
६. काय क्लेश - कायक्लेश का अर्थ है - शरीर को शीत, उष्ण अथवा विविध आसन आदि द्वारा विभिन्न प्रकार से कष्ट देना । एक कष्ट स्वकृत होता है और दूसरा परकृत । साधक अपने शरीर पर आसक्त नहीं रहता। वह शरीर व आत्मा को अलग-अलग स्वीकार करता है। आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट किया है कि - "यह शरीर और आत्मा दूसरे का है। साधक इस प्रकार की तत्त्व बुद्धि के द्वारा दुःख और क्लेश देनेवाली शरीर की ममता का त्याग करते हैं।४०
आत्मवादी साधक यह स्वीकार करता है कि – “जो दुःख है, कष्ट है, वह सब शरीर को है, आत्मा को नहीं । कष्ट से शरीर को पीड़ा होती है, वध आदि से शरीर का नाश होता है, आत्मा का नहीं ।४१
स्थानांग में कायक्लेश के प्रकार को बताते हुए कहा गया है - कायोत्सर्ग करना, उत्कटुक आसन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना, वीरासन करना, निषद्या-स्वाध्याय आदि के लिए पालथी मारकर बैठना, दण्डापत खड़े होकर रहना, लकड़ी की भाँति खड़े होकर ध्यान करना ।४२ उववाई सूत्र में काय क्लेश के प्रकारान्तर से चौदह भेद बताये गये हैं।४३
अभ्यन्तर तप
जैन दर्शन में छ: अभ्यन्तर क्रियायें या तपों का वर्णन किया गया है, जो निम्नलिखित हैं -
१. प्रायश्चित्त . ४. स्वाध्याय २. विनय
५. ध्यान ३. वैयावृत्त्य
६. व्युत्सर्ग
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